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- धर्म रत्नाकरः
1492 ) तत्प्रयोत्साहन योग्यदानानन्दप्रमोदादिमहाक्रियाभिः ।
कुर्वन् मुनीनागमविद्धचित्तान् स्वयं नरः स्याच्छतपारगामी ॥ ५३ 1493 ) श्रुतेन तत्त्वं पुरुषः प्रबुध्यते श्रुतेन वृद्धिः समयस्य जायते ।
श्रुतप्रभावं यदि वर्णयेज्जिनः श्रुताद्विना सर्वमिदं विनश्यति ॥ ५४ 1494 ) शस्त्राणि यद्वद्दधतो वराकाः क्लेशे हि बाहये सुलभा मनुष्याः । सुदुर्लभाः सन्ति सुडीरवच्च यथार्थविज्ञानघना जगत्याम् ।। ५५ 1495 ) शृणिविज्ञानमेवास्य वशायां शयदन्तिनः ।
तदुद्धते बहिःक्लेशः क्लेश एव परं भवेत् ।। ५५*१
1496 ) बाह्यं तपोऽप्रार्थितमेति पुंसो ज्ञानं स्वयं भावयतः सदैव । क्षेत्रज्ञ रत्नाकर संनिमग्ने बाह्याः क्रियाः सन्तु कुतः समस्ताः ॥ ५६ चौदह पूर्वी स्वरूप रचा गया पूर्वश्रुत और सामायिकादि स्वरूप प्रकीर्णक श्रुत; इस प्रकार अति दुर्लभ समस्त श्रुत ही यहाँ नष्ट हो जावेगा ॥ ५२ ॥
जो मनुष्य योग्य विनय, उत्साह, अनुकूल दान, आनन्द और प्रमोदादिरूप उत्तम क्रियाओं के द्वारा मुनियों के मन को आगम में संलग्न करता है वह स्वयं आगम का पारगामीश्रुतकेवली - हो जाता है ॥५३॥
मनुष्य श्रुतज्ञान से जांवादि तत्त्वों के स्वरूप को जानते हैं, तथा उस श्रुत से जैन धर्म की वृद्धि होती है । यदि उस श्रुत के प्रभाव का कोई वर्णन कर सकता है तो वे जिन - वीतराग सर्वज्ञ देव - हो कर सकते हैं। यदि वह श्रुतज्ञान न होगा, तो उस के विना यह सब ही नष्ट हो जायेगा || ५४ ॥
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जिस प्रकार शस्त्रों को दीन या कातर मनुष्य भी धारण कर के बाहिरी क्लेश को सहते है उसी प्रकार बाहिरी क्लेश के सहनेवाले मनुष्य बहुत-से सुलभ हैं, परंतु जिस प्रकार शस्त्रों को धारण कर के भी सुडीर - निर्भय शूरवीर के समान बहुत-से सुभट दुर्लभ ही होते हैं उम्रो प्रकार लोक में ठोस यत्रार्थ आगमज्ञान से संपन्न मनुष्य दुर्लभ ही होते हैं ॥५५ ॥ मनरूप हाथी को वश करने के लिये विशिष्ट ज्ञान ही कुश के समान है । यदि विज्ञानरूप अंकुश के विना मनरूप हाथी उद्धत - उन्मत्त- रहा तो फिर बाह्य जो उपवास आदि तप का क्लेश है वे केवल क्लेश ही - कोरे कष्ट ही रहनेवाले हैं ॥ ५५१॥ जो सदा स्वयं ज्ञान की भावना में निरत रहता है उस के पास बाह्य तप प्रार्थना के
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५३ ) 1 विनय । ५५ ) 1 PD शास्त्राणि वद्वद्, D शुनक्लेशेन प्रचुरा:. 2 दानशूरवत् । ५५*१) 1 P° शूणिर्विज्ञान, अङकश 2 वशहेतवे 3 D तदुद्धृते । ५६ ) 1 [आत्मना 2 P आत्मसमुद्र, आत्मसमुद्रे निमग्ने मनसि ।