Book Title: Dharmaratnakar
Author(s): Jaysen, A N Upadhye
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 463
________________ ३९७ - १९. ३७] - सल्लेखनावर्णनम् - 1571 ) तिरस्कारं मूर्खः पशुरसि शठेत्यादि सहत स्तपो धोरं सारं विदधत इदं नातिशयितम् । ममोत्पन्न ज्ञानं मतिमिति मुनियों न कुरुते समाख्यातः शान्तः स इह खलु बोधातिविजयी ॥ ३५ 1572) सिद्धान्तार्णवपारगस्य तपसां वासस्य संवेगिनो। भक्तस्यादिजिनेश्वरादिषु न मे ऽजायन्त चेनिर्णयाः । प्रव्रज्येयमनथिका व्रतमिदं क्लेशावहं केवलम् एवं भावयते न यो विजयते दृष्टे: स बाधां मुनिः ॥३६ 1573) अन्तर्ध्यानं यदि विषहते सर्वदेशवतादयः सर्वानेतान जनित भुवनक्षोभवृत्तानिवारीन् । पुष्टि तन्वन्नतिशयवती संवरे निर्जरायां सत्यंकारं वितरतितरां मुक्तिकान्तोपयाम ॥ ३७ जो मुनि 'अरे दुष्ट ! तू मूर्ख व पशु जैसा है ' इत्यादि दुर्वचनों को सहन करता है तथा 'भयानक व श्रेष्ठ तपश्चरण को करते हुए भी मुझे जो यह ज्ञान उत्पन्न हुआ है वह अतिशय को नहीं प्राप्त हो रहा है। इस प्रकार को बुद्धि को-विचार को-कभी मन में नहीं उदित होने देता है वह ज्ञान को पीडाका-अज्ञानपरीषह का जीतनेवाला कहा गया है ॥ ३५ ॥ __जो मुनि ' मैं सिद्धान्तरूप समुद्र का पारगामी, तपश्चरणों का घर, संसार से भयभीत और आदि जिनेश्वरादिकों का भक्त हूँ; तो भी चूंकि मुझे निर्णय - ज्ञानातिशय या ऋद्धि आदि- उत्पन्न नहीं हो रही है, इसलिये यह दीक्षाग्रहण व्यर्थ है, तथा यह व्रत केवल दुःख - दायक है' ऐसा मन में कभी विचार नहीं करता है वह दर्शन को बाधा को-अदर्शन परीषह को जीतता है ॥ ३६॥ सर्व व्रती-महाव्रती मुनि-और देशवतसहित श्रावक यदि अपने अन्तरात्मा के ध्यान में लीन होकर जगत् को क्षुब्ध करनेवाले शत्रुओं के समान इन परीषहों को सहन करते हैं तो वे संवर और निर्जरा के विषय में अतिशययुक्त पुष्टि को उत्पन्न करते हैं (अर्थात् वे कर्मों के विपुल संवर और निर्जरा को करते हैं ) तथा मुक्तिरूप स्त्री के साथ विवाह करने के कार्य में अधिक सत्यंकार (बयाना) देते हैं ॥ ३७॥ ३६) 1 यदि नोत्पत्रा:. 2 निश्चया:. 3 दर्शनस्य । ३७) 1 P°क्षोभवृत्ती निवा. 2 साई. 3 ददाति.4 मुक्तिकान्तापरिणयने ।

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