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३९० -धर्मरत्नाकरः
[१९. ३८1574) तारुण्यं तरुणीकटाक्षचटुलं कल्लोललोलं वपु
लक्ष्मीः कुञ्जरकर्णतालतरला भोगास्तडिद्भगुराः । उद्वेल्लद्विषवल्लरीरससमाः संगाः कुरङ्गीदृशां
वातव्याकुलितप्रदीपचपलज्यालोपमं जीवितम् ।। ३८ 1575 ) क्षितिजलधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनैस्त्रिभिः
परिवृतमतः खेनाधस्तात्ख लासुरनारकान् । उपरि दिविजान मध्ये कृत्वा नरान् विधिमन्त्रिणा
पतिरथ नृणां त्राता नैको हलध्यतमो ऽन्तकः ॥ ३८*१ 1576 ) उद्वेल्लत्परिवर्तनद्रुमघने प्राणप्रकारालिनो'
नैकटयं कुलयोनिकोटिकुसुमैः कर्मानिलान्दोलिताः । अश्रान्तं विषयासवैकरसिकाः संसारचक्रे चिरात्
भ्राम्यन्तीति कृती विभाव्य रमतां तद्दोषदरे पदे ॥ ३९ __तारुण्य युवती स्त्रियों के कटाक्षों के समान चंचल है, शरीर तरंगों के समान अस्थिर है, लक्ष्मी ताडपत्र के समान (बडे ) हाथी के कानों के समान चपल है, भोग बिजली के समान नाशवान हैं, परिग्रह हरिणी के समान नेत्रोंवाली स्त्रियों के सहवास ऊपर चढी हुई विषवल्ली के रससमान है तथा प्राणियों का जीवित वायु से व्याकुल किये गये दीपक को चंचल ज्वाला के समान है ॥ ३८ ॥
यह लोक असंख्यात द्वीप-समुद्रों से तथा बाहर घनवात, अम्बुवात और तनुवांत इन तीन वायुओं से वेष्टित है। ब्रह्मदेवरूप मंत्री ने इसमें नीचे - अधोलोक में - दुष्ट असुरों और नारकियों को, ऊपर-स्वर्ग में - देवों को और मध्य में मनुष्यों को किया है । इस प्रकार मनुष्यों के संरक्षण की पूरी व्यवस्था कर के भी न तो वह ब्रह्मदेव ही उन की रक्षा कर सका और न मनुष्यों का स्वामी - चकवर्ती आदि - भी रक्षा कर सका। ठीक है - यम अतिशय अलंघनीय है ॥ ३८*१॥
फैलते हुए परिवर्तनरूप वृक्षों से सघन ऐसे संसाररूप गहन वन के भीतर प्राणभेदरूप भ्रमरकुल और योनिरूप करोडों फूलों के साथ निकटता को प्राप्त होकर कर्मरूप वायु से कम्पित होते हुए निरन्तर विषयभोगरूप मद्य के असाधारण रसिक होते हैं व इसीलिये वहाँ चिरकाल तक भरमण करते हैं, ऐसा जानकर बुद्धिमान् मनुष्य को उन दोषों के दूरवर्ती पद में -मोक्ष में रमण करना चाहिये ॥ ३९ ॥
३८) 1 P°वल्लरीभरसमाः. 2 हरिणाक्षीस्त्रीसंगाः। ३९) 1 भरमरा:. 2 मद्य. 3 संसारदोषदूरे पदे मोक्षे।