________________
[१९. एकोनविंशो ऽवसरः]
[ सल्लेखनावर्णनम् ] 1517 ) इत्थं व्रतेषु प्रतिमाभिराभिः संपूर्णतामण्डनमुद्हत्सु ।
कालालिनायुर्मकरन्दपानं बुद्ध्वा विधत्तामनुरूपमस्यं ॥ १ 1518 ) तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रदीपमिव देहम् ।
स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ॥ १*१ 1519) ब्रजबलं भुक्तिमपास्यमानं गलत्प्रतीकारमहनिशं च ।
यथा वपुर्भक्षयते ऽत्र का रश्चरित्रमप्येतदहो जिघत्सुः ॥ २
अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत स्वरूप पूर्वोक्त व्रत इन ग्यारह प्रतिमाओं के साथ सम्पूर्णतारूप अलंकार को धारण करते हैं । अर्थात् उन व्रतों की परिपूर्णता इन प्रतिमाओं के द्वारा होती है । यमरूप भरमर को आयुरूप मकरन्द (पराग) का पान करते हुए देखकरआयु की विनश्वरता को जानकर-श्रावक को प्रतिमा के अनुरूप कार्य करना चाहिये, अर्थात् आयुष्य की समाप्ति के समय सल्लेखना को धारण करना चाहिये ॥ १॥
जैसे वृक्ष का पका हुआ पत्ता स्वयमेव गिर जाता है अथवा तेल से रहित दीपक स्वयमेव बुझ जाता है वैसे हो आयु को स्वयं विनाश के सन्मुख देख कर योग्य श्रावक अन्तिम विधि अर्थात् सल्लेखना को पूर्ण करता है ॥ १*१ ।।
घातक यमराज यहाँ जिस प्रकार दिनरात निरन्तर- बल से विहीन हो कर भोजन का परित्याग करनेवाले व रोग की प्रतिकार शक्ति से रहित हुए ऐसे शरीर को अपना ग्रास बनाता है उसी प्रकार से वह इस चारित्रको भी अपना ग्रास बनाता है, यह खेद की बात है । (अभिप्राय यह है कि मृत्यु के निकट होने पर शरीर और संयम दोनों ही नष्ट होते हैं, अतः इस के लिये पूर्व से ही सावधान रहना चाहिये ) ॥ २॥
१) 1 रमरेण. 2 आयुर्मकरन्दस्य । १२१) | फल [ पूर्ण ] । २) 1 P°काले चरित्र . 2 भक्षि. तुमिच्छु:, D ग्रसनशोल: धर्म:।