Book Title: Dharmaratnakar
Author(s): Jaysen, A N Upadhye
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 458
________________ ३९२ : - धर्मरत्नाकरः - — 1556 ) विडम्बनमिवात्मनः सकलकामिनी चेष्टितं विभावयते उज्ज्वलं दधत एव तुर्य व्रतम् । मनो विजयसूचकं परमसंयमालम्बनम् अनन्य समंमगिनो भवति नग्नतामर्षणम् ॥ २० 3 1557 ) आवोध वायरहितेषु' गुहादिकेषु वासेषु वाध्ययनयोगसमाहितस्य । दृष्टश्रुतानुभवमन्मथकारिरम्येवर्थेष्वचिन्तन परस्य जयो रतेः स्यात् ।। २१ 1558 ) सरसवचनभङ्गा लोलने त्रान्तपाता कुचभर विनताङ्गीर्मोहयन्तीर्जगन्ति । स्मितमधुरमुखाब्जाः पश्यतो वाणिनीस्ता रहसि भवति रामाबाधमर्षस्थितस्य ॥ २२ 2 [१९.२० जो समस्त स्त्रियों की चेष्टा को - कामोत्पादक प्रवृत्ति को अपनी विडम्बना के समान समझता हुआ निर्मल चतुर्थव्रत को - अखण्डित ब्रह्मचर्य को धारण करता है तथा जिसका असाधारण मन उत्कृष्ट संयम का आलम्बन लेता हुआ विजय का सूचक है ऐसा प्राणी नग्नतापरीषह को सहता है ॥ २० ॥ जो मुनि आतोद्य वाद्योंसे - तत, आनद्ध, शुषिर व घन इन चार प्रकार के बाजों सेरहित गुंफा आदि निर्जन स्थानों में स्थित रहकर स्वाध्याय व ध्यान में सावधान रहता हुआ दृष्ट, श्रुत एवं अनुभव में आये हुए कामोद्दीपक रमणीय पदार्थों के विषय में विचार नहीं करता है वह रतिपरीषह का विजयी होता है ॥ २१ ॥ - जो अनेक प्रकार से सरस मधुर भाषण करती हुई चंचल नेत्रों से कटाक्षपात करनेवाली हैं, जिनका शरीर स्तनों के भार से झुक रहा है, जो जगत् को - विश्व के प्राणियों कोअपने सौन्दर्य से मोहित करती हैं, तथा जिन का मुखकमल मन्द हास्य से मनोहर है; ऐसी नर्तकी स्त्रियों को एकान्त में देखता हुआ भी जो साधु उन की बाधा को स्थिरतापूर्वक सहता है वह स्त्री परीषहका विजेता होता है ॥ २२ ॥ २०) 1 कामिनीचेष्टितउदासीनस्य यतेः. 2 नान्यसमम्. 3 नग्नतासहनम् । २१ ) 1 गीतनृत्यवादित्ररहितेषु. 2 P° गुहादिशून्य ° 3 P° चाध्ययन | २२ ) 1 एकान्ते. 2 P° स्थिरस्य ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530