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- धर्मरत्नाकरः -
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1556 ) विडम्बनमिवात्मनः सकलकामिनी चेष्टितं विभावयते उज्ज्वलं दधत एव तुर्य व्रतम् । मनो विजयसूचकं परमसंयमालम्बनम् अनन्य समंमगिनो भवति नग्नतामर्षणम् ॥ २०
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1557 ) आवोध वायरहितेषु' गुहादिकेषु वासेषु वाध्ययनयोगसमाहितस्य । दृष्टश्रुतानुभवमन्मथकारिरम्येवर्थेष्वचिन्तन परस्य जयो रतेः स्यात् ।। २१
1558 ) सरसवचनभङ्गा लोलने त्रान्तपाता कुचभर विनताङ्गीर्मोहयन्तीर्जगन्ति । स्मितमधुरमुखाब्जाः पश्यतो वाणिनीस्ता रहसि भवति रामाबाधमर्षस्थितस्य ॥ २२
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[१९.२०
जो समस्त स्त्रियों की चेष्टा को - कामोत्पादक प्रवृत्ति को अपनी विडम्बना के समान समझता हुआ निर्मल चतुर्थव्रत को - अखण्डित ब्रह्मचर्य को धारण करता है तथा जिसका असाधारण मन उत्कृष्ट संयम का आलम्बन लेता हुआ विजय का सूचक है ऐसा प्राणी नग्नतापरीषह को सहता है ॥ २० ॥
जो मुनि आतोद्य वाद्योंसे - तत, आनद्ध, शुषिर व घन इन चार प्रकार के बाजों सेरहित गुंफा आदि निर्जन स्थानों में स्थित रहकर स्वाध्याय व ध्यान में सावधान रहता हुआ दृष्ट, श्रुत एवं अनुभव में आये हुए कामोद्दीपक रमणीय पदार्थों के विषय में विचार नहीं करता है वह रतिपरीषह का विजयी होता है ॥ २१ ॥
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जो अनेक प्रकार से सरस मधुर भाषण करती हुई चंचल नेत्रों से कटाक्षपात करनेवाली हैं, जिनका शरीर स्तनों के भार से झुक रहा है, जो जगत् को - विश्व के प्राणियों कोअपने सौन्दर्य से मोहित करती हैं, तथा जिन का मुखकमल मन्द हास्य से मनोहर है; ऐसी नर्तकी स्त्रियों को एकान्त में देखता हुआ भी जो साधु उन की बाधा को स्थिरतापूर्वक सहता है वह स्त्री परीषहका विजेता होता है ॥ २२ ॥
२०) 1 कामिनीचेष्टितउदासीनस्य यतेः. 2 नान्यसमम्. 3 नग्नतासहनम् । २१ ) 1 गीतनृत्यवादित्ररहितेषु. 2 P° गुहादिशून्य ° 3 P° चाध्ययन | २२ ) 1 एकान्ते. 2 P° स्थिरस्य ।