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-१९. १२६] - सल्लेखनावर्णनम् - 1546) आराध्यो भगवान् जगत्त्रयगुरुर्वृत्तिः सतां संमता
क्लेशस्तच्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् ।। साध्यं सिद्धिसुखं कियान् परिमितः कालो मनःसाधनं
सन्तश्चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किं वा समाधौ बुधाः ॥ १२*४ 1547 ) जीवितमरणाशंसा सुहृदनुरागः सुखानुबन्धविधिः ।
एते सनिदानाः स्युः सल्लेखनहानये पञ्च ॥ १२*५ 1548 ) आराधनायामप्युक्तं बालपाण्डित्यम् -
__ अच्छिन्नजीविताशायां सहसा मरणे ऽपि वा। .अमुक्तो जातिभिर्वान्त्यात्तदुक्तं बालपण्डितः ॥ १२*६
जिस समाधि में त्रैलोक्य के गुरु जिनेन्द्र देव आराधन के योग्य हैं, साधुजनों को अभीष्ट वृत्ति-सदाचरण-है, कष्ट यदि कुछ है तो वह जिन भगवान् के चरणों का स्मरण है जो-वस्तुतः कष्ट नहीं है, हानि यदि कुछ होनेवाली है तो वह कर्मों के अतिशय क्षयरूप है - जो अभीष्ट ही है, सिद्ध करने योग्य मुक्ति का सुख है, काल भी उसमें कितना अधिक लगनेवाला हैं - कुछ थोडासा ही लगनेवाला है, तथा उसका साधन-उसे सिद्ध करनेवाला-मन है। इस प्रकार हे विद्वज्जनो! थोडा विचार तो करो कि उस समाधि में विषम - कठिन - क्या है? अर्थात ऐसी समाधि के धारण करने में कठिन कुछ भी नहीं है - सभी सामग्री सुलभ है ॥ १२१४ ।।
जिविताशंसा, मरणाशंसा, सुहृदनुराग, सुखानुबंध विधि और निदान ये पाँच अतिचार सल्लेखना की हानि के लिये कारण हैं। जीविताशंसा - जीनेकी इच्छा रखना। मरणाशंसा - मरण की इच्छा करना । सुहृदनुराग - अपने पूर्व मित्रों का मन में स्मरण करना। सुखानुबंधविधि-नानाप्रकार के प्रोतियुक्त सुखों का जो अनुभव किया गया है उनका बार बार स्मरण करना । निदान-मनमें भावी भोगों की इच्छा रखना ॥१२*५॥
आराधना में भी बालपांडित्य कहा गया है ।
अकस्मात् मरन आने पर जीविताशा नष्ट नहीं होती है और उस समय आत्मा जाति - जन्मरूपी वायुसमूह से अमुक्त होता है (?) अर्थात् उस को पुनर्जन्म ग्रहण करने पडते हैं, उसे बालपंडित कहते हैं ॥ १२२६ ॥
१२४) 1 D भो बुधाः।