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-१२. ४*३]
- अहिंसा सत्यव्रतविचारः -
950 ) सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना' भवति पुंसः । हिंसा यतननिवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। ३२३ 951 ) विचित्र परिणामेभ्यो जायमाना प्रथीयसी' ।
हिंसा न पार्यते ज्ञातुं तथात्वं कथ्यते कियत् ॥ ४ 952 ) अविद्यायापि हि हिंसां हिंसा फलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ ४* १ 953 ) एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् ।
महासा स्वल्पफला भवति परिपाकै ॥ ४*२
954) एकस्य व तीव्रं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥ ४३
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यद्यपि दूसरी वस्तुओं के आश्रय से जीव की निश्चयतः सूक्ष्म भी हिंसा - उसका लेश भी
- नहीं होती है । फिर भी परिणामों की निर्मलता के लिये उस हिंसा के आयतनों का उसकी
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आश्रयभूत वस्तुओं का परित्याग करना ही चाहिये ॥ ३२३ ॥
विविध परिणामों के द्वारा होने वाली महती - विविध भंगरूप - हिंसा के स्वरूप का भलीभाँति जान लेना शक्य नहीं है । तब फिर वैसी अवस्था में उसके स्वरूप का निरूपण कितना किया जा सकता है ? अर्थात् परिणामों के अनुसार उस हिंसा के विविध रूप संभव होने से उसके स्वरूप का पूर्णतया कथन करना शक्य नहीं है ॥ ४ ॥
कोई एक जीव हिंसा - द्रव्यप्राणों का घात-न कर के भी उस हिंसा के फलका पात्र होता है - हिंसारूप परिणामों के आश्रय से हिंसाजन्य पाप का भागी होता है । और इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति हिंसा को - द्रव्यप्राणों के घात को - करके भी प्रमादरहित होने के कारण उस हिंसा के फल का पात्र नहीं होता है ॥ ४१ ॥
किसी एक जीव के लिये थोडी-सी भी हिंसा ( परिणामों के अतिशय कलुषित होने के कारण ) विपाक के समय में विपुल फल को देती है । और इसके विपरीत अन्य किसी जीव के लिये महती हिंसा भी ( परिणामों की निर्मलता के कारण ) परिपाक के समय में थोडे से ही फल को देती है ॥ ४*२॥
वही - समान रूपसे की गई
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हिंसा एक जीव के लिये ( कषाय के तीव्र होने से )
३*२३) 1 परवस्तु [ संबन्धिनी ] 2 PD पुरुषस्य 3 D स्थानानि, यद्यपि सूक्ष्मापि हिंसा न भवति तथापि हिंसास्थानानि त्यजनीयानि । ४ ) 1 गरीयसी, D गरिष्ठा 2 न शक्यते 3 याथातथ्यम्. 4D अंशमात्रम् । ४*१) 1 अकृत्त्वा, D अक्रियमाणा पि. 2 हिंसायाः 3D न भवेत् । ४* २ ) 1D सहायजनस्य. 2 अनुभव समये । ४*३) 1 सा हिंसा. 2 द्वयोरपि ।