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३६८ -धर्मरत्नाकरः
[१८. ३७1462 ) काले कलो संततचञ्चले च चित्ते सदाहारमये च काये ।
चित्रं यदद्यापि जिनेन्द्र रूपधरा नरा दृष्टिपथं प्रयान्ति ॥ ३७ 1463) अतो यथा केवलनायकानां लेपादिक्लुप्तं प्रतिबिम्बमय॑म् ।
तथैव पूर्वप्रतिबिम्बवाहाः संप्रत्युपाया॑ यतयः सुधीभिः ॥ ३८ 1464) पात्रे दत्तं भवेत्सर्व पुण्याय गृहमेधिनाम् ।
शुक्तावेव हि मेवानां जलं मुक्ताफलं भवेत् ॥३८*१ 1465 ) यत्र रत्नत्रयं नास्ति तदपात्रं प्रकीर्तितम ।
उप्तं तत्र वृथा सर्वमूषरायां क्षिताविव ।। ३८*२ 1466) मिथ्यात्ववासितमनस्सु तथा चरित्रा
भासंप्रचारिषु कुदर्शिनिघु प्रदानम् । प्रायो हयनर्थजननप्रतिघातहेतु
क्षीरप्रपाणमिव विद्धयनिलाशनेषु ॥ ३९ जन, दीन और दया के पात्र; इन के लिये यथायोग्य देश, काल और शक्ति के अनुसार स्वयं ही जानकर कुछ देना चाहिये ॥३६॥
- इस कलिकाल में चित्त के निरन्तर चंचल, तथा शरीर के सदा भोजनाश्रित होने पर भी यही आश्चर्य है कि आज भो जिनरूप के धारक मनुष्य-दिगम्बर साधु-दृष्टिगोचर होते हैं ॥३७॥
इसीलिये जिस प्रकार केवलज्ञानादिक गुणों के स्वामी जिनेश्वरों की पाषाणादि से. निमित प्रतिमा की पूजा की जाती है उसी प्रकार स पूर्वकाल के मुनियों के प्रतिबिम्ब के धारक पूर्व महर्षियों की प्रतिमारूप से कलित-वर्तमान मुनियों की भी विद्वानों को पूजा करनी चाहिये ॥३८॥ - पात्र में दिया हुआ आहार-औषधादिक सब गृहस्थों के पुण्य का कारण होता है। सो ठीक भी है, क्यों कि, सीपमें पड़ा हुआ मेघों का पानी मोती हो जाता है ॥३८*१॥
.. जिस मनुष्य में रत्नत्रय नहीं है उसे अपात्र कहते हैं । उस में बोया हुआ-दिया गया आहारादिक-क्षारभूमि में बोये हुए बीज के समान व्यर्थ होता है ॥३८*२॥
जैसे सो को पिलाया गया दूध प्रायः अनर्थ को उत्पन्न करनेवाला और जीवित के नाश का कारण होता है वैसे ही जिनके मन में मिथ्यात्व का वास है तथा जो चारित्राभास
३८) 1 यतिवेषधारकाः. 2 पूज्याः । ३९) 1 D आकृतिरूपं चारित्रं नास्ति. 2 P°प्रतिघातिहेतु . क्षीर. 3 सपेषु।