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- १५. ४९*१२]
- सामायिक प्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1239 ) साहूणमेगंतियजीवियस्से समग्गणाणुग्गमसा सणस्स । दुवालसंग णमो सुवस्स ठिच्चा थिरं पंचमहव्वसु ।। ४९*९ 1240 ) कसायभावं तु जहंतयस्से सुद्धोवओवप्पगविग्गहस्स ।
णमो चरित्तस्सं अखंडियस्स कसायसेणा य तवंतयस्स ॥ ४९* १० 1241 ) सव्वाई कम्माई डहंतयस्स संपुण्णविण्णाणपणायगस्स ।
सिवग्गमग्गस्स णमो तस्स सम्मत्तणाणायरणुज्जमम्मि ॥ ४९* ११ 1242 ) सम्मत्तणाणं रयणुज्जमम्मि तवोविहाणम्मि सुदारुणम्मि |
सव्वपर्णा सुट्टु सणामियस्स णमो णमो संजमवीरियस्स ॥ ४९*१२ इत्याह्वाननमन्त्रः ।
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का संक्षेप अर्थात् स्वरूप में रहने से स्थिरता की जो प्राप्त हुआ है, जिस से ज्ञान स्फुरित होता है अर्थात् जिस से ज्ञान को सम्यक्पना प्राप्त होता है उस सम्यग्दर्शनको नमस्कार है ॥ ४९*८ ॥
मेरा आचारादि द्वादशांगात्मक श्रुतज्ञान को नमस्कार हो । जो श्रुतज्ञान साधुओं का एकान्त जीवित है, सम्पूर्ण ज्ञान की - केवलज्ञान की उत्पत्ति करनेवाला शासन है अर्थात् श्रुतज्ञान से केवल ज्ञान की उत्पत्ति होती है उस श्रुतज्ञान के सामर्थ्य से पाँच महाव्रतों में मुनि स्थिर रहे हैं || ४९*९॥
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जिस के आश्रय से कषाय भावों का त्याग किया जाता है, जो शुद्धोपयोगरूप शरीको धारण करता है तथा जो आत्मा को निश्चिततापूर्वक अपने शुद्ध स्वरूप में रखता है, ऐसे अखंडित चारित्र को मेरा नमस्कार हो ॥ ४९*१० ।।
जो तप कषायसेना का अन्त करता है, सर्व कर्मों को जलाता है - उन्हें निर्मूल करता है, संपूर्ण ज्ञान को रचता है - प्राप्त कर देता है तथा जो मोक्ष का मुख्य मार्ग है उसे हमारा नमस्कार हो ॥ ४९*११ ॥
जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूपी रत्न को प्राप्त करने में उद्युक्त रहता है, तीव्र तपश्चरण में उत्साहयुक्त होता है, तथा जिसे सर्व आत्माओं ने उत्तम नमस्कार किया है, ऐसे संयम वीर्याचारको मैं बार बार नमस्कार करता ॥ ४९*१२ ॥
इस प्रकार आव्हानन मंत्रका कथन समाप्त हुआ ।
४९*९) 1D साधूनां ज्ञानजीवितव्यं एकान्तेन. 2 D द्वादशाङगाय । ४९* १० ) 1 D यथास्य तस्य. 2 D चारित्राय नमः 3 D दाहकस्य । ४९* १२ ) 1D सर्वात्मना 2 PD इत्याह्वानमन्त्रः ।
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