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[१६. षोडशो ऽवसरः]
[पोषधपतिमापपञ्चनम्] 1295) परावरप्रवरसुखैक कारणं तपो महाभवभवतापवारणम् ।
प्रपञ्च्यते परमधुना ह्यगारिणां प्रसंगतः किमपि महानगारिणाम् ॥ १ 1296 ) यदाचरन् देव इव प्रपूज्यते परैरपि स्वैरपि यत्र तत्र ना।
__ परैर्गुणैर्दूरमपाकृतो ऽपि सन्नदस्तपस्तप्यमपास्ततन्द्रिभिः ॥ २ 1297 ) अष्टम्यां च चतुर्दश्यां पक्षयोरुभयोरपि ।
उपवासः प्रकर्तव्यो विषयग्रामवर्जितः ॥ ३ 1298 ) स्वस्वार्थग्रामदेशेभ्य उपेत्या वसन्ति यत् ।
करणान्युपवासो ऽतश्चतुर्धाहारदूरकः ॥ ४ ___ जो तप, पर, अवर और प्रवर सुख का-सर्वोत्कृष्ट सांसारिक सुख और मोक्षसुख दोनों का भी- कारण होकर दीर्घ संसार व उसके संताप को दूर करने वाला है, उस गृहस्थों के उत्कृष्ट तप का यहाँ विस्तार से वर्णन किया जाता है। प्रसंगवश यहाँ महर्षियों के भी तप का कुछ कथन किया जायेगा॥१॥
जिस तप का आचरण करनेवाला मनुष्य उत्तम गुणों से रहित होनेपर भी जहाँ-तहां दूसरे सज्जनों के द्वारा और स्वकीय जनों के भी द्वारा पूजा जाता है, उस तप को निरंतर आलस्य से रहित होकर तपना चाहिये ॥२॥
गृहस्थ को कृष्ण और शुक्ल दोनों ही पक्षों में अष्टमी और चतुर्दशी के दिन इन्द्रियविषयसमूह से विमुख होकर उपवास को करना चाहिये ॥३॥
चूंकि इन्द्रियाँ अपने अपने विषयसमूह-स्पर्शरसादि-रूप देशों से (उपेत्य) आकर यहाँ अर्थात् चार प्रकार के आहार के त्यागरूप उपवास में (वसन्ति) निवास करती हैं, अतएव
२) 1 PD°यत्र तत्र. 2 D नरः, 3 D निराकृतोऽपि । ४) 1 D परिणाम व्यावृत्य. 2 D तपसि ।