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[ १६. ५७३
- धर्मरत्नाकर:1304) प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् ।
निर्वतयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासु कैव्यैः ॥ ५*३ 1305 ) उक्तेन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रि च ।
अपि वाहयेत्पयत्नादधं च तृतीय दिवसस्य ।। ५*४ 1306 ) इति यः षोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलसावधः ।
___ तस्य तदानीं नियतं पूर्णहिंसाढतं भवति ॥५*५ 1307) अनवेक्षितापमाजितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः। स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासघ्नाः ॥ ५*६
इत्युत्तमोपवासविधिः।
दिन को-बिताते हुए सायंकाल को विधि- सामायिक बंदना आदि को-करना चाहिये। तत्पश्चात् पवित्र बिस्तर पर- शुद्ध चटाई आदि के ऊपर - स्वाध्यायसे निद्रा को जीतते हुए रात्रि को व्यतीत करना चाहिये ॥ ५*२ ॥
पश्चात् प्रातःकाल में उठकर और उस समय की सामायिक-देववन्दनादि विधि को कर के तदनन्तर आगमोक्त विधि के अनुसार प्रासुक जल चन्दनादि द्रव्यों से जिनपूजा को करना चाहिये ॥ ५३॥
____ तत्पश्चात् उपर्युक्त विधि के साथ दूसरे दिन और रात्रि को - अष्टमी और पूर्णिमा या अमावस्या के दिनभाग और रात्रिभाग को-बिताकर प्रयत्नपूर्वक तीसरे दिन के- नवमी प्रतिपद् के-आधे भाग को भी बिताना चाहिये ॥ ५*४ ॥
इस प्रकारसे जो समस्त सावद्य प्रवृत्ति से रहित होकर सोलह (४+ ८+४ = १६) प्रहरों को बिताया करता है, उसके उस समय नियम से पूर्ण अहिंसाव्रत - अहिंसा महाव्रत - होता है ॥५*५॥
अनवेक्षित - अप्रमार्जित आदान, अनवेक्षित-अप्रमार्जित संस्तर, अनवेक्षित-अप्रमाजिंत उत्सर्ग, स्मृत्यनुपस्थान और अनादर ऐसे पाँच प्रोषधोपवास के विघातक अतिचार हैं।
(अनवेक्षित-अप्रमार्जित आदान-प्राणियों को बिना देखे तथा मृदु उपकरण से बिना झाडे अहंदादि परमेष्ठियों के पूजोपकरण, पुस्तकादिक और अपने वस्त्र आदि को ग्रहण करना या रखना।
अनवेक्षित-अप्रमार्जित संस्तर- प्राणियों को बिना देखे और बिना झाडे चटाई आदि को भूमिपर बिछाना।
५*५) 1 D महाव्रतम् । ५६) 1 D विस्मरणम् ।