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- धर्मरत्नाकर: -
[१७. २७1380 ) रक्षन्ति प्रतिमामिमां यदि समं पूर्ववनिर्मलै
स्ते स्युब्रह्मचराग्रवर्तिन इति द्वन्द्वद्वयध्वंसिनः । एतान पान्ति यथोदितान यदि तदा मध्या व्रतैः प्राक्तनैः
किरिद्धि तयं भवन्ति लघवो ये पालयन्ते तथा ॥ २७ 1381 ) भोगोपभोगमलः स्यादारम्भो गहमेधिनाम ।
भोगोपभोगा यैस्त्यक्ताः स्यात्तेषां से कुतस्तनः ॥ २८ 1382 ) हिंसां त्रसानामपि सर्वथैव निरोधुमिच्छत्यसुखैकधात्रीम् ।
यः स्थावराणामपि दुनिवारामारम्भमुज्झविति सो ऽवबुध्य ॥ २९ 1383 ) बाह्यारम्भे विनिहितमनाः स्यात्परायत्त' एव
तस्माद्धर्म निजसमुचितं न स्मरेन्नापरं वा। धर्मारामस्मृतिविरहितः किं न तिर्यक्समानो हिंस्रत्वं तत्कथमिव जने मित्रतां नानुरुन्ध्यात् ॥ ३०
यदि श्रावक निर्मल पूर्ववतों के साथ इस प्रतिमा का पालन करते हैं तो वे ब्रह्मचर्य पालनेवालों में अग्रगण्य होते हैं तथा (सुखदुःखरूप) दोनों द्वन्द्व को नष्ट करते हैं। यदि पूर्वोक्त व्रतों के साथ उक्त विधिसे वे इनका पालन करते हैं तो वे मध्यम ब्रह्मचारी होते हैं और जिनके ये दोनों कभी कभी होते हैं वे लघु ब्रह्मचारी होते हैं ॥२७॥
गृहस्थों के जो आरम्भ होता है, उसके मूलकारण भोग और उपभोग हैं । परन्तु जिन्होंने भोग और उपभोग को छोड दिया है उनके वह आरम्भ कहाँ से हो सकता है ॥२८॥
जो श्रावक एक मात्र दुःख को उत्पन्न करनेवाली त्रस जीवों की हिंसा के सर्वथा रोकने की इच्छा करता है तथा जो दुर्निवार- जिसका रोकना अशक्य है- ऐसी स्थावर जीवों को भी हिंसा को रोकना चाहता है उसे बुद्धिपूर्वक आरम्भ का त्याग करना चाहिये ।। २९ ॥
जिसका मन बाहिरी आरम्भ में संलग्न है वह पराधीन ही है। इसी से वह न तो अपने समुचित धर्म का स्मरण कर सकता है । और न अन्य भी कर्तव्य कार्य का स्मरण कर सकता है । इस प्रकार से जब वह धर्मरूप उद्यान के स्मरण से रहित होता है तब वह क्या पशुतुल्य नहीं होगा? (अवश्य होगा, क्योंकि मनुष्य और पशु में यही तो भेद है कि मनुष्य विशिष्ट ज्ञानी होने से धर्माचरण में उद्यत होता है, परन्तु विवेकशून्य होने से पशु उस में
२७) 1 D भवेयुः. 2 मिश्रितः । २८) 1 PD आरम्भः । ३०) 1 P स्यात्वरा ।।