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- धर्मरत्नाकरः
[१८. ३१
1443) औचित्यतः करुणयामलकीतितो वा
सर्वत्र वर्षति पयोदवदत्र दाता । कैर्नार्थ्यते ऽथिनिवह्रियते तथाप्य--
मीषां सुदर्शनमुपोन्नमयन् प्रदद्यात् ।। ३१ 1444 ) यागज्ञनास्तिकटिक्षणवादिमुख्य
पाखण्डिनां समयसत्करणैकवासे । सदर्शनं मलिनतामुपयात्यवश्यं
क्षीरं यथा कटुकतुम्बकभाजनस्थम् ॥ ३२ 1445 ) अज्ञाततत्त्वचेतोभिर्दुराग्रहमलीमसैः ।
युद्ध मैव भवेद्गोष्ठयां दण्डादण्डि कचाकचि ॥ ३२*१ 1446) भयलोभोपरोधस्तु कुलिङ्गिषु निषेवणे ।
अवश्यं दर्शनं म्लायेन्नीचराचरणे सति ॥ ३२*२
जो दाता उचित समझकर, दया से प्रेरित हो कर अथवा निर्मल कीर्ति की इच्छा से भी यहाँ मेघ के समान सर्वत्र बरसता है - सब ही अर्थीजनों को दान देता है - उससे कौन से अर्थीजनों के समूह प्रार्थना नहीं करते हैं तथा वह किनके द्वारा नहीं हरण किया जाता है ? (अर्थात् सब ही जन याचना करते हुए उसके चित्त को अपनी ओर खींचते हैं) । तो भी उसे उन सबके लिये निर्मल सम्यग्दर्शन को उन्नति के लिये ही देना चाहिये ॥ ३१ ॥
यज्ञ के ज्ञाता नास्तिक - चार्वाक, क्षणवादी बौद्ध साधु – इत्यादि पाखण्डियों के आगम का आदर करना तथा उनके साथ रहने से कडुवी तूमडीके पात्र में रखे हुए दूधके समान सम्यग्दर्शन अवश्य मलिनता को प्राप्त होता है ।। ३२ ।।
जिनका चित्त तत्त्वज्ञानसे शून्य है तथा जो दुराग्रह से - एकान्त मिथ्यात्वसे - मलिन हो रहे हैं, उनके साथ गोष्ठी - वार्तालाप आदि - करने से परस्पर लाठियों से और बाल पकड कर युद्ध का ही प्रसंग उत्पन्न होता है ॥ ३२*१ ॥
___ भय, लोभ और लोकाग्रह से कुलिंगियों की - अन्य धर्म के साधुओं की - उपासना करने पर तथा नीच आचरण - व्यवहार - करने पर सम्यग्दर्शन अवश्य ही मलिन होता है ॥ ३२*२ ॥
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३१) 1.P°पानमयन D उन्नतिनिमित्ते। ३२*१) 1 केशाकेशि ।