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-१५.६६]
- सामायिक प्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1267 ) अकारादिहकारान्ता मन्त्राः परमशक्तयः । स्वमण्डलगता ध्येया लोकद्वयफलप्रदाः || ६४ मण्डलार्चनं प्रसिद्धम् ।
1268) अरहंतदेवअच्चर्णमणादिणिहणं समत्थसिद्धियरं । विज्जाणुवाद सिद्धं कित्तियमेत्तं भणामीह || ६४* १
1269 ) शिक्षाव्रतं निजगदे' जगदेकनाथः सामायिकं सकल कल्मषवर्जनेन । आवर्जनेन च शुभस्य सदा जनेन कार्यं विचार्य सुधिया सुखभाजनेन || ६५
1270 ) दृगवगमचरणसहितः समयो हयात्मा स्वरूपविज्ञानम् । तत्कर्म तद्धिमुख्यं सामायिकमीरितं समये ।। ६६
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अपने अपने मण्डल में रहने वाले अकार से लेकर हकार पर्यन्त जो महती शक्ति के धारक मंत्र हैं वे इस लोक में और परलोक में फल देने वाले हैं । इसीलिये उनका ध्यान करना चाहिये ॥ ६४ ॥
मण्डलाचन में प्रसिद्ध है -
यह अरिहन्त देवताकी पूजा अनादिनिधन व समस्त सिद्धि की कारण हो कर विद्या नुवाद में प्रसिद्ध है । यहाँ मैं उसका कितना वणन कर सकता हूँ ।। ६४*१॥ सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन -
सर्व पापों का त्याग करने तथा शुभ कार्य करने के सन्मुख होने से सामायिक शिक्षा ब्रत होता है, ऐसा जगत् के अद्वितीय स्वामी जिनेश्वर ने कहा है । इसीलिये जिसकी बुद्धि शुभ कार्य में तत्पर हैं ऐसे सुख के भाजनभूत श्रावकजन को विचार कर निरन्तर इस सामायिक व्रत को सदा करना चाहिये ॥ ६५ ॥
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र सहित आत्मा को समय कहते हैं । आत्मा का स्वरूप रत्नत्रय है । उसका ज्ञान भी समय कहा जाता है । ( अर्थात् मैं रत्नत्रय स्वरूप हूँ ऐसा ज्ञान होना यह भी समय है ) । रत्नत्रय स्वरूप आत्माका जो कर्म है उसे आगम में मुख्य सामायिक कहा है ॥ ६६ ॥
६४*१) 1 D देवतार्चनं । ६५ ) 1 कथितम् 2D करणीयम् ।