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-धर्मरत्नाकरः -
[१३. २५*११
1092 ) यो ऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तु वित्तादिः ।
सो ऽपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ॥ २५*११ 1093 ) आत्मनो ऽननरूपो वा यो वा युक्त्या समागतः ।
यतो यतो ऽपरज्येत तं संतोषी परित्यजेत् ॥२६ 1094 ) कारुकस्येवं हस्त्यादि वैरितश्चागतं धनम् ।।
क्रेयं राजस्वमज्ञातं मृते ज्ञातौ तथाविधम् ॥ २७ 1095 ) सत्पात्रविनियोगेन यो ऽर्थसंग्रहतत्परः ।
लुब्धेषु स परं लुब्धः सहामुत्रं धनं नयन् ।। २७* १ 1096 ) कृतप्रमाणाल्लोभेने यो धनाधिक्यसंग्रहः ।
पञ्चमाणुव्रतज्यानि करोति गृहमेधिनाम् ॥ २७*२
जो भी धन (चान्दी-सोना आदि) धान्य, मनुष्य, घर और धन (गाय-भैंस आदि) आदिक परिग्रह नहीं छोड़ा जा सकता है, उसे भी थोडा थोडा कम अवश्य करते जाना चाहिये । क्योंकि तत्त्व निवृत्तिरूप है । (अर्थात् धर्मका स्वरूप प्रवृत्ति न हो कर निवृत्ति ही है) ॥ २५*११॥
___ जो अपने पद के अनुकूल नहीं है तथा जो अयुक्ति से प्राप्त हुआ है-अन्याय से प्राप्त हुआ है-ऐसे धन का त्याग करना चाहिये । तथा जिस जिस परिग्रह से विरक्ति अथवा कुत्सित राग उत्पन्न होता है, सन्तोषी मनुष्य को उस उस परिग्रह का परित्याग करना चाहिये ॥२६॥
__जिस प्रकार बढई से हाथी (आदि खिलोने ) खरीदे जाते हैं उसी तरह शत्रुसे प्राप्त होनेवाला धन तथा अज्ञात राजधन और मरे हुए ज्ञातिजन का धन खरीद लेना ही योग्य है ॥२७॥
जो सत्पात्रों में धन का उपयोग कर के उसके संग्रह में तत्पर होता है वह लोभियों में भी महालोभी है । क्योंकि इस प्रकार से वह उस धन को परलोक में ले जाता है । (तात्पर्य यह कि सत्पात्र दान से परभव में पुनः संपत्ति प्राप्त होती है) ॥२७* १ ॥
जो गृहस्थ लोभ के वश होकर किये गये प्रमाण से अधिक धनादि के संग्रहमें तत्पर रहता है, वह गृहस्थों के परिग्रहपरिमाणनामक पाँचवे अणुव्रत को नष्ट करता है ॥ २७*२ ॥
२५*११) 1 परिग्रहः. 2 तुच्छं करणीयः । २६) 1 परिग्रहम् । २७) 1 चित्रकारकस्य हस्त्यादयः, D कमनीयस्य. 2 P°चौरतः. 3 क्रय्यम्. 4 यथा राजद्रव्यम् अज्ञातं वृथा भवति । २७*१) 1 दानयोगेन न ददाति. 2 परत्र । २७*२) 1 P°लाभेन° 2 PD हानिम् ।