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- धर्मरत्नाकरः -
[१५. ८०१1175) आप्तस्यासंनिधाने ऽपि पुण्यायाकृतिपूर्जनम् ।
तार्क्ष्यमुद्रा न कि कुर्याद्विषसामर्थ्य सूदनम् ॥ ८*१ 1176) अन्तरङ्गबहिरङ्गविशुद्धि देवतार्चनविधौ विदधीत ।
आर्तरौद्रविरहीत्प्रथमा स्यात्स्नानतः किल यथाविधितो ऽन्या ॥ ९ 1177) रागादिदूषिते चित्ते नास्पदी परमेश्वरः।
न बध्नावि धृति हंसः कदाचित्कर्दमाम्भसि ॥ १० 1178 ) संभोगाय बहि:शुद्धथै स्नानं धर्माय च स्मृतम् ।
धर्माय तद्भवेत्स्नानं यत्रामुत्रोचितो विधिः ॥ ११ 1179) नित्यं तद् ब्रह्मजिह्मस्य देवाचनपरिग्रहे ।
यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विहितम् ॥ ११*१
जिनदेव के समीप में न होनेपर भी उनकी आकृति (प्रतिमा) का पूजन भी पुण्य का कारण है। सो ठीक भी है । क्योंकि, गरुड की अंगूठी क्या विष के सामर्थ्य को नष्ट नहीं करती है ? ॥ ८*१ ॥
जिनदेव के पूजन विधान में पूजक को अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की विशुद्धि को करना चाहिये । उनमें आर्त और रोद्रध्यान के अभाव में पहली (अन्तरंग शुद्धि) तथा विधिपूर्वक स्नान करने से दूसरी (बाहयविशुद्धि) होती है ॥९॥
रागादिक विकारों से मलिन मन में जिनेश्वर निवास नहीं करते हैं । ठीक है - हंस पक्षी कीचड युक्त जल में कभी भी अवस्थान नहीं करता है ॥ १० ॥
स्नान, संभोग बाह्य शुद्धि और धर्म के लिये माना गया है। इन में धर्म के लिये घह स्नान होता है जिस में कि परलोक के योग्य अनुष्ठान हुआ करता है ॥ ११ ॥
जो गृहस्थ ब्रह्मजिम्ह है अर्थात् स्त्रीसंभोग किया करता है उसे देवपूजा करने के लिवै नित्य स्नान करना चाहिये । परन्तु यति के लिये दुर्जन - चाण्डालादि-का स्पर्श होनेपर ही स्नान करना चाहिये । अन्य किसी भी कारण से मुनि के लिये स्नान करना निन्द्य माना गया है ॥ ११*१॥
. *१) 1 अविद्यमानेऽपि. 2 प्रतिविम्बस्य. 3 गरुडमुद्रा. 4 स्फेटनम् । ९) 1 कुरुत. 2 विनाशात्. ३ अन्तरङगशुद्धिः. 4 माह्मशुद्धिः । ११*१) 1 तत् स्नानम्. 2 अब्रह्मणः ।