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- १३. ३५] - अस्तेयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः - २०१ 1103) स्फटेहस्तकपिण्याकौं पूर्व भरतो ऽपि सन्महालोभात् ।
अत्रामुत्र च कतमंद्वयसनं नापुंश्च दण्डकी राजा ॥ ३२ 1104) हेमेष्टकया प्रतिमाकारिषि संतोषतो ऽपि जिनदासः ।
___ बाहुबली मणिमाली सुखमापुरुभत्र कि वा न ॥ ३३ 1105) एकेन्द्रियाद्या अपि दुःखमुग्रं भोगोपभोगार्थपराङ्मुखाश्च ।
पापुः परे किं किल वम आन्तस्त्याज्यो भवेत्सद्भिरयं कुलोभः ॥ ३४ 1106 ) काम कुप्यति हस्यते च हसति व्याहन्यते हन्ति वा
विद्राति द्रवति प्रणौति नमति व्यापद्यते खिद्यते । एवं लोभसरस्वति प्रतिदिशं यस्मिन्निमग्नं जगत् संतोषार्ककरैरशोषि" स तु यैनन्दन्तु ते सज्जनाः ॥ ३५
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मल को दूर करना कैसे शक्य है?। इस प्रकार जिसका मन अन्तरंग और बहिरंग पदार्थों से दूर रहकर विरक्त हुआ है वह मानव देव के समान वन्दनीय तथा माता पिताके समान विश्वास का स्थान है ॥ ३१ ॥
अतिशय लोभ के कारण स्फटहस्तक व पिण्याक सेठ, भरत और दण्डकी राजा ये इस लोक में व परलोक में कौनसी विपत्ति को नहीं प्राप्त हुए हैं ? अर्थात दोनों ही लोकों में उन्हें दुःख भोगना पडा है ॥ ३२ ।।
सेठ जिनदासने संतोष धारण कर सोनेकी ईंट से जिनप्रतिमा बनवाई। तथा बाहुबली और मणिमाली ये दोनों महापुरुष सन्तोषको धारण कर इस लोक और परलोक में क्या सुखी नहीं हुए हैं ? (अर्थात् अवश्य ही वे उससे सुखी हुए हैं ) ॥ ३३ ॥
भोगोपभोग विषयों से पराङमुख एकेन्द्रियादिक जीव भी उग्र दुखको प्राप्त हुए हैं । फिर अन्य प्राणियों के विषय में हम क्या कहें ? इसलिये सज्जनों को ऐसे आंतरिक कुत्सित लोभका त्याग करना इष्ट है ॥३४॥
लोभ के वशीभूत हुआ मनुष्य अतिशय क्रोध को प्राप्त होता है, कभी वह दूसरों की हँसी का पात्र बनता है तो कभी स्वयं दूसरों का परिहास करता है, कभी वह दूसरों के द्वारा
३२) 1 P°स्फुट °. 2 फडहथ श्रेष्ठी पिण्याकी श्रेष्ठी कौचित् द्वौ. 3 D चक्री नकुलजात:. 4 दुःखं कवणं कवणं. 5 न प्राताः. 6 दण्डकीराज्ञः च कवणदुःखं न प्राप्तम्, D सर्पोऽभूत् । ३३) 1D स्वर्णइंटप्रतिमा. 2 P D° कारी। ३४) 1 वयं कथयामः. 2 अभ्यन्तरः । ३५) 1 अतिशयेन. 2 अन्य : हस्यते च. 3 अन्यैः विशेषेण हन्यते. 4 म्लायति. 5 गच्छति. 6 स्तौति. 7 PD लोभसमुद्रे. 8 सरस्वति. 9 शोषितम्. 10 लोभसरस्वान् ।