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-१२. ३*१८] - अहिंसासत्यव्रतविचारः - 942) दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनायाः क्षामकुक्षिमायातम् ।
निजमांसदानरभसादालब्धव्यो न चात्मापि ॥ ३*१५ 943) को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरून् ।
विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसां विशुद्धमतिः ॥ ३*१६ 944 ) यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् ।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ३*१७ 945) अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ३*१८
यह है कि जिस प्रकार घट के भीतर बंद गोरैया पक्षी उस घट के फोड देने पर उससे छुटकारा पा लेता है उसी प्रकार प्राणोका घात कर देने पर वह भी शरीररूप घट से छुटकारा पा लेता है-मुक्त हो जाता है ऐसा खरपट का मत है, जो श्रद्धा के योग्य नहीं है) ॥३* १४ ॥
भूख से पीडित होने के कारण जिसका पेट क्षीण हो रहा है - भीतर घुसा जा रहा है ऐसे दूसरे प्राणी को आगे आता देखकर उसके खाने के लिये अपने मांस को देने की उत्कण्ठावश अपने आप को प्राप्त नहीं करना चाहिये-स्वयं का घात नहीं करना चाहिये ॥ *१५ ॥
ऐसा कौनसा निर्मलबुद्धि मनुष्य होगा जो विविध नयों के पारंगत गुरुओं की आराधना करके जैन मत के रहस्य को जानता हुआ अहिंसा के आश्रय से मोह में प्रविष्ट होता है-उस अहिंसा के विषय में मूढता को प्राप्त होता है ( अर्थात् कोई भी विचारशील मनुष्य उपर्युक्त अहिंसा के विकृत स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है )।।३* १६॥
कषायके वश होकर जो द्रव्यप्राण और भावप्राणों का नाश किया जाता है वह निश्चित ही हिंसा है। (यहाँ पांच इन्द्रियाँ, तीन बल (मनोबल आदि), आयु और श्वासोच्छवास इन दस को द्रव्यप्राण तथा ज्ञानदर्शन व क्षमा-मार्दवादि को भावप्राण समझना चाहिये ) ॥३*१७॥
___राग द्वेषादि कषायों की उत्पत्ति का न होना निश्चय से अहिंसा और उन्हीं की उत्पत्ति का होना हिंसा है, यह जिनागम का संक्षेप है । यह परमागम में संक्षेप से अहिंसा और हिंसाका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है ॥ ३* १८ ॥
३*१५) 1 न मारितव्यः, D न धातनीयः। ३*१६) 1 0 सेव्य । ३*१७) 1 विनाशस्य । ३*१८) 1 अनुदयभावः, D कषाययोगाभावात्. 2 रागादीनाम् ।
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