________________
-१२. ४*१० ]
- अहिंसासत्यव्रतविचारः -
957) कस्यापिदिशति हिंसा हिंसाफलमेव फलकाले । अन्यस्य सैव हिंसादिशत्यहिंसा फलं नान्यत् ॥ ४*६ 858 ) इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंभाराः ।। ४७ 959 ) अत्यन्तनिशितधारा दुरासद' जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झगिति दुर्विदग्धानाम् ||४*८ 960 ) अवबुध्य॑ हिंस्यं हिंसक हिसाहिं साफलानि तत्त्वेन ।
नित्यमनिगूहमानैर्निजशक्तिं त्यज्यतां हिंसा || ४* ९ 961 ) आत्मपरिणामहिंसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधार्थम् ॥ ४१०
२४५
किसी के लिये हिंसा - बुद्धिपूर्वक किया गया जीववध फलकाल में हिंसा के फलको ही देती है । इस के विपरीत दूसरे के लिये (जैसे- दयालु वैद्य - डॉक्टर) वही हिंसा अहिंसा के फलस्वरूप पुण्यबन्ध का कारण होती है, न कि हिंसा के फलस्वरूप पापबन्ध का || ४६ ॥ इस प्रकार जिस के मध्य में से अतिशय दुखपूर्वक बाहर निकल सकते हैं ऐसे अनेक प्रकार के भेदों से दुर्गम उस हिंसा अहिंसा के विचारस्वरूप वन में मार्गविषयक ज्ञान से रहित -- मिथ्यादृष्टि-जनों के लिये नयरूप चक्र के चलाने में चतुर गुरु ही शरण - उस हिंसा अहिंसारूप दुर्गम वनसे उद्धार करने वाले - होते हैं ॥ ४*७ ।।
*
जिनेन्द्र देव का वह नयरूप चक्र अतिशय तीक्ष्ण धार से संयुक्त - दुर्ज्ञेय - होने से दुष्प्राप्य है - मन्दबुद्धि जन उसका ठीक ठीक उपयोग नहीं कर सकते हैं । इसलिये जो दुर्बुद्धि या दुरभिमानी जन उसको धारण करते हैं उनके मस्तक को वह शीघ्र ही खण्डित कर देता है । ( यथास्थान उसका ठीकठाक उपयोग न कर सकने के कारण वे मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं )
४*८ ॥
हिंस्य - घात करने योग्य प्राणी के द्रव्य ओर भाव प्राण, हिंसका कषायाविष्ट जीव, हिंसा - प्राणों का घात, और हिंसाफल - अशुभ कर्मबन्ध; इनके स्वरूप को परमार्थ से जानकर अपनी शक्ति को न छिपाते हुए हिंसा का त्याग करना चाहिये ॥ ४९॥
असत्य भाषण, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रह ये सब भी आत्मा के निर्मल परिणामों
४*७ ) 1 जिनमार्गमविज्ञायकानाम् 2 नयारूढा गुरवः । ४* ८ ) 1 दुष्प्रापम्, D दुःसाध्यम्. 2 एकान्तेन धार्यमाणं नयचक्रम्. 3 PD मस्तकं छेदयति, अनन्तसंसारिणं करोति च 4 मिथ्यादृष्टीनाम् । ४*९) 1 PD ज्ञात्वा. 2 मार्यजीव. 3 मारक. 4 अलोपमानैः ।