________________
[१३. त्रयोदशो ऽबसरः] |
..
[ अस्तेयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः] 1037) प्रमादतो ऽन्यस्य परिग्रहं यो गृह्णात्यदत्तं तदवादि चौर्यम् ।
बहिश्चरमाणविमोषणत्वाद्धिसा च सा मृत्यवसानदुःखा ॥ १ 1038) उक्तं च
अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् ।
हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥ ११ 1039) हिंसायाः स्तेयस्य च नान्याप्तिः सुघट एव हि सं यस्मात् ।
प्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यः ॥ १२ ...
जो पुरुष प्रमाद से अन्य किसीके विना दिये हुए परिग्रह (धनधान्यादि ) को ग्रहण करता है उसे चौर्य (चोरी) कहते हैं । उक्त धनधान्यादि परिग्रह प्राणी के बाहय प्राण जैसा है । इसीलिये उसके चुराने से हिंसा होती है जिसका अन्तिम फल मरण का दुःख होता है ॥ १॥
कहा भी है
ये जो धन हैं वे प्राणियों के बाहय प्राण हैं । इसीलिये जो मनुष्य दुसरे के धन का हरण करता है, वह उसके प्राणों को लूटता है, यह समझना चाहिये ॥ ११॥
हिंसा में स्तेय (चौर्य कर्म) की भी अव्याप्ति सम्भव नहीं है । (अर्थात हिंसाका वह लक्षण लक्ष्य ( हिंसा ) के एकदेशभूत उस स्तेय में नहीं जाता हो, सो भी बात नहीं है) क्यों कि, दूसरों के द्वारा स्वीकृत धन के अपहरण करने में वह प्रमत्तयोग घटित होता ही है.। (अभिप्राय यह है कि,प्रमादयुक्त योग से दूसरे के प्राणों का जो अपहरण किया जाता है, इसका नाम हिंसा है। सो यह हिंसाका लक्षण चूंकि उक्त प्रकार से स्तेय में भी घटित होता है, अतएव बह हिंसाका लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित नहीं है) ॥ १२ ॥
१) 1 उक्तम् । १*१) 1 D अहो. 2 त एते. । १*२) 1 D एकस्वरुपमेव. 2 D प्रमत्तयोगः. 3 P°स्वकृतस्य ।
३४