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• अस्तेयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः -
- १३. १०]
1061 ) हेन्यैरिव हुतंप्रीतिः पाथोमिरिव नीरधिः । धृतिमेति पुमानेष न भोगैर्भवसंभवैः ॥ १६*१ 1062 ) रक्ष्यमाणे प्रबृंहन्ति' यंत्रा हिंसादयो गुणाः ।
उदाहरन्ति तद् ब्रह्म ब्रह्मविद्याविशारदाः ।। १६*२ 1063 ) बाह्यास्तास्ता रचयतु पुमान् सत्क्रियाः कामचित्तः संक्लेशात्मा समधिकतयाँ निर्वृतो भावलाभे । तस्मात्त्यक्त्वा मदनविभवास्ताः क्रियाः स्वानुलोमाः संकल्पन्ते फलवितये कामिनां शुद्धधर्मे ॥ १७ 1064) धर्मध्यानविभूतिदेहविषया' अन्तर्ज्वलन्मन्मथे '
रक्षोपार्जनसत्क्रियाप्रभृतयो नश्यन्ति सर्वाः क्रियाः । तं दोषगणाकरं कृतधिया त्याज्यं यदाहारवत् सेवन्तां वपुरुत्थतापहतये त्यासक्तिवेगच्छदः ॥ १८
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जिस प्रकार होम के योग्य घृतादि पदार्थों से कभी अग्नि तृप्त नहीं होती है, तथा पानी से कभी समुद्र तृप्त नहीं होता है उसी प्रकार संसार के भोगों से यह मानव भी कभी तृप्त नहीं होता हैं ॥ १६१ ॥
जिसके रक्षण करने पर अहिंसादिक गुण वृद्धिंगत होते हैं उसे ब्रह्मविद्या में चतुर - अध्यात्मवेदी महर्षि - ब्रह्म कहते हैं || १६२॥
जिस मनुष्य का चित्त काम से व्याकुल हो रहा है तथा जो अतिशय संक्लेश परिणा मों से युक्त है वह भले ही उन अनेक बाह्य समीचीन क्रियाओं को करता रहे, परन्तु उसे अतिशय निर्वृति (संतोष) भावलाभ होने पर होगी । ( अर्थात् - संक्लेश परिणामों को छोडकर परिणामविशुद्धिसे ही निर्ऋति मुक्तिसुख प्राप्त होता है ) । इसलिये कामविकार से उत्पन्न होनेवाली अर्थात् उसे अनुकूल होनेवाली क्रियाओं को छोडकर शुद्ध धर्म की सहायक क्रियाओं को भावपूर्वक करनी चाहिये । नहीं तो कामिओं की क्रिया फलनाश के लिये - पुण्यनाश के लिये - कारण होगी ॥ १७ ॥
जिसका अन्तःकरण कामाग्नि की ज्वालाओं से सन्तप्त हो रहा है उसका धर्मध्यान विभूति, शरीर और इन्द्रियविषय ( अथवा धर्मध्यान, विभूति और शरीरको विषय करने
१६*१) 1 D इन्धनैः. 2 PD अग्निः । १६* २ ) 1 प्रवर्धयन्ति 2 ब्रह्मणि । १७ ) 1 सकाम 2 अधिक चरित्रेऽपि 3 P° भाविलाभे, आगामिफल [ ला ] भेन रहितो भवति 4 कथंभूतास्ताः क्रियाः, स्वानुलोमाः स्वानुकूलाः, D समीचीना: 5 किं कुर्वताम् । १८ ) 1 पञ्चेन्द्रियगोचर 2 कस्मिन् सति. 3 काः क्रिया नश्यन्ति 4 ततः तं मन्मथम्. 5 कृतबुद्धेः पुरुषस्य, D ' कृतधियो त्याज्यं, सतः 6 कस्यै. 7 अति - आसक्ति - वेग विनाशकस्य |