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-१३. १२] - अस्तेयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः - ____ २६९ 1053) यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म।
अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सदभावात् ॥१०*१ 1054) हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥ १०*२ 1055) अब्रह्म मैथुनमिति प्रतिपादने ऽपि
माता निजेव भगिनीव सुतेन साक्षात् । अन्यस्य योषिदनुरागभरे ऽपि दृश्या
त्रेधापि चारुचरितेन निशान्तभाजा ॥ ११ 1056) यतो विरज्येत महाजनः सदा स्वयं विशकेन यतो ऽनुरागतः ।
निजस्त्रियं तां च परस्त्रियं शुचिः समालपेन्नो मनसापि मानवः ॥१२
परकीय धन का परित्याग करना चाहिये और न्याय से प्राप्त हुए योग्य धन का ग्रहण करना योग्य है ॥ १०॥
... वेदराग के-स्त्री और पुरुष वेदस्वरूप नोकषाय के - उदयसे जो संभोगकार्य होता है उसे अब्रह्म कहते हैं । इसमें हिंसा होती है, क्योंकि इसमें भी सर्वत्र जीवों के वध का सद्भाव पाया जाता है ॥ ११ ॥
जिस प्रकार तिलों की नाली में तपो हुई लोहशलाका के रखने पर उसमें सब तिलोंका नाश होता है, उसी प्रकार मैथुनकार्य में योनि में अवस्थित बहुत से जीवोंकी हिंसा हुआ करती है ॥ १०२२ ॥
___अब्रह्म या मैथुन इस प्रकार कहने में भी तथा तद्विषयक अनुरागकार्य में भी सदाचारी गृहस्थ को अन्यकी स्त्री को मन, वचन व कायसे साक्षात् अपनी माता, बहिन और पुत्री के समान देखना चाहिये। (अभिप्राय यह है कि, जिस प्रकार अपनी माता व बहिन आदिके समक्ष मैथुनविषयक अनुराग तो दूर रहा, किन्तु अब्रह्म या मैथुन शब्दों का उच्चारण भी निन्द्य माना जाता है, उसी प्रकार अन्य को स्त्री को भी माता आदि के समान समझकर तद्वत् ही व्यवहार करना चाहिये) ॥ ११॥
महापुरुष जिस स्त्री की ओरसे सदा विरक्त रहता है तथा स्वयं जिस अनुराग से शंकित रहता है, पवित्र मनुष्य को उस स्वकीय स्त्री और परस्त्री से मन से भी वार्तालाप नहीं करना चाहिये ॥ १२॥
___ १०*१) 1 मैथुने । १०*२) 1 तिलनालीविषये. 2 लोहे. 3 यथा । ११) 1 मैथुनसेवकेनापि. 2 महान् दोषः, 3 दर्शनीया. 4 निशान्तं गृहं, निशान्तभाजा गृहस्थेन, D उपासकेन । १२) ID विशङकेत निजस्त्रीसाधे रागजपनम् अवसरे योग्यम्. 2 मनुष्यः ।