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- धर्मरत्नाकर
979) पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहुः पापं तमोमयम् । तत्पापं पुंसि किं तिष्ठेद्दयादीधितिमालिनि ॥ १४५ 980 ) क्रियायाः सर्वस्या भवति कलिलं ' संगतमिदमभिध्यानात्प्रायस्तरतमतया किंतु विदुषाम् । यथैोः कृषिकरझषोत्साद करयोः ' प्रियापुत्र्योर्मध्ये विहितविनिवेशस्र्यं यदि वा ।। १५
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981 ) तदुक्तम् —
अथ शुभमशुभं वा सत्यमस्ति क्रियायाः फलमपघनभाजां' निष्फलं नैव कर्म 1 निरवधि परिशुद्धब्रह्मगम्भीरमूर्तिः
स जयति परमात्मा निष्फला यस्य सेवा ।। १५*१
[ १२.१४*५
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पुण्य को तेजोमय - प्रकाशस्वरूप और पापको अन्धकारस्वरूप कहा जाता है । सो वह अन्धकारस्वरूप पाप क्या दयारूपी सूर्यप्रकाश के धारक पुरुष में अवस्थित रह सकता है ? ॥ १४५ ॥
जो भी किया है उस सभी से यह पाप संगत संबद्ध रहता है । परन्तु प्रायः वह विद्वानों के संकल्प के अनुसार हीनाधिक होता है । जैसे - हरिणी और सिंहिनी में संकल्प को विशेषता से उस पापकी होनाधिकता होती है । दूसरा उदाहरण- खेत में किसान हल चलाते समय अनेक जीवों को नष्ट करता है, परन्तु उन जीवों को मारने का भाव चूँकि उसके मन में नहीं होता है इसलिये वह अधिक पापका भागी नहीं होता है । परन्तु मछलियों का संहार करने वाला धीवर उन मछलियों को न पकडते हुए भी मन में मारने का संकल्प बना रहने से अधिक पापी होता है । ( तीसरा उदाहरण ) कोई पुरुष पत्नी और लडकी दोनों के बीच बैठा हुआ है व उसे दोनों के शरीरका स्पर्श हो रहा है | शरीरस्पर्श यद्यपि दोनों
का समान है फिर भी मनोगत भाव में भेद रहता ॥ १५ ॥
कहा भी है
१४*५ ) 1 तमोमयं पापम्. 2 दीधितिमालिन् शब्द, दीधितिमाली सूर्य:, तस्मिन् दयादीधितिमालिनि, D सूर्य । १५ ) 1 (अ) सत्यम्. 2 तारतम्यतया 3 हरिणीसिंहिनीद्वयोः, D हरिणी. 4 PD कृषिकरधीवरयो:. 5 स्त्रीपुत्रिद्वयो:. 6 कृतानुभवस्य १५ * १ ) 1 शरीरधारिणाम्, D शरीरभाजां 2 निष्कर्मा ।