________________
- धर्मरत्नाकरः
[११. ३७१५874) तत्स्वस्य हितमिच्छन्तो मुञ्चन्तश्चाहितं मुहुः ।
सन्तो दन्ति कथं मांसं परव्यापत्तिसंभवम् ॥३७*५ 875) मद्यमांसमधुप्रायं कर्म धर्माय चेन्मतम् ।।
अधर्मः को ऽपरः किं वा भवेद् दुर्गतिदायकम् ॥ ३७*६ 876) स धमों यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् ।
तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥ ३७*७ 877 ) श्राद्धादौ पितृ तर्पणादिकृतये मांस न देयं सदा
पित्रादेरिव जीवितं प्रियतरं' सर्वाङगभाजां यतः । सिद्धान्ते च कृतान्तकल्प इव चेदुक्तं हितं नो तथा युक्त्या यंन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्धधे ॥ ३८
है। (तात्पर्य यह कि, मॉस जब दूसरे मृगादि प्राणियों को दुख उत्पन्न करने वाला है तब उससे अपने शरीर को पुष्ट करनेवाले मनुष्य को उसके भक्षण से आगे स्वयं के लिये भी दुख ही अधिक उत्पन्न होनेवाला है) ॥३७*४ ॥
इसलिये जो सत्पुरुष अपने ही हित की इच्छा से निरन्तर अहित को त्यागने वाले हैं वे भला दूसरों को दु:ख उत्पन्न करनेवाले मांस का भक्षण कैसे कर सकते हैं ? कभी नहीं ॥३७*५॥
जो कार्य मद्य, माँस और मध की प्रचरता से संयुक्त होता है, वह यदि धर्म के लिये माना जायेगा. तो फिर दर्गतिदायक ऐसा अन्य कौनसा कार्य संभव है जो अधर्म का कारण होगा ? (अर्थात् वैसी अवस्था में तो निकृष्ट से निकृष्ट कार्य भी धर्मरूप माना जा सकता है और तब वैसी अवस्था में दुर्गति प्राप्ति का भय भी किसी को नहीं रहेगा) ॥३७१६॥
वस्तुतः धर्म का कार्य तो वही हो सकता है जिसमें अधर्म का -पापाचरण का- लेश भी नहीं होता है । यथार्थ सुख भी वही हो सकता है, जिसमें दुःख का लेश भी न हो । समीचीन ज्ञान भी वही कहा जा सकता है जिसमें अज्ञान का कुछ भी संबन्ध न हो। तथा गति भी वही उत्कृष्ट मानी जा सकती है, जहाँ से पुनः संसार में आगमन का संभव न हो ॥३७*७॥
श्राद्ध आदि कर्म में पितृतर्पण आदि के लिये माँस का देना कभी भी योग्य नहीं है। जीवन जैसे पिता आदि को अतिशय प्रिय है वैसे ही वह सभी प्राणियों को अतिशय प्रिय है । यदि यम के समान प्राणिविघातक किसी शास्त्र में वैसा कहा गया है तो वह वैसा हितकारक नहीं है। जो बात युक्ति से संगत नहीं है उस पर मैं देख कर भी श्रद्धा नहीं कर सकता हूँ ॥ ३८॥
३७*५) 1 P D भक्षन्ति. 2 अपरजीवघातोत्पन्नम् । ३७*६) 1 D कर्म । ३८) 1 वल्लभम्. 2 परशास्त्रे. 3 P° हिते, न इलाध्यम्. 4 D मांसम् ।