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- धर्म रत्नाकरः -
902 ) देशकालबललोलुभत्वतस्तत्स्थमेव यदि गृह्यते जनः ।
निन्द्यतां तदपि चात्मचेष्टितं बुध्यतां च जिननाथभाषितम् ॥ ५४
903 ) कुतर्कागमसंभ्रान्तचेतसः केऽपि वादिनः । विवदन्ते प्रबन्धेन नाभक्ष्यं' किंचनापि हि ॥ ५५
904 ) जीवयोगाविशेषेणं उष्ट्रमेषादिकायवत् । मुद्गमाषादिकायो ऽपि मांसमित्यपरे जगुः ।। ५५*१ 905 ) तदयुक्तमित्याह ।
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मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । निम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः || ५५२
देश, काल, अपनी शक्ति तथा लोलुपता के वश होकर यदि मनुष्य उक्त और चमडे के कुप्पे आदिमें स्थित घी व तेल आदि पदार्थ लेना पड़े, तो उसे वह अपने इस कार्य की निन्दा करते हुए जिनेन्द्र देव ने उसके विषय में जो उपदेश दिया है उसे जान लेना चाहिये ॥ ५४ ॥ जिनका चित्त कुतर्क और कुशास्त्र से भ्रान्ति को प्राप्त हुआ है ऐसे कितने ही वादी जगत् में अभक्ष्य कोई भी वस्तु नहीं है' ऐसा विस्तार से विवाद करते हैं ॥ ५५ ॥
जीव के संबन्ध की समानता होने से ऊँट और मेढे के मृत शरीर के समान मूंग व उडद आदि धान्यरूप शरीर भी माँस है, ऐसा कितने ही प्रवादी कहते हैं । अभिप्राय उनका यह है कि जिस प्रकार ऊँट आदि के शरीर को तद्गत मांस को प्राणी का शरीर होने से अभक्ष्य कहा जाता है, उसी प्रकार मूंग आदि धान्य भी जब वनस्पति कायिक जीवों का निर्जीव शरीर है तब उसे भी अभक्ष्य क्यों नहीं माना जाता । वैसी अवस्था में उक्त धान्य आदि के भक्षण की भी माँस भक्षणके समान निषेध्य समझना चाहिये ।। ५५* १ ।।
कथन - आशंका - योग्य नहीं है ।
शरीर माँस हो भी सकता है।
इसके उत्तर में यहाँ यह कहा गया है कि उपर्युक्त यथा - माँस नियम से जीव का शरीर ही होता है, परन्तु जीव का और नहीं भी हो सकता है । जैसे- नीम नियम से वृक्ष ही होता है, परन्तु वृक्ष नीम ही हो, ऐसा नियम नहीं है । वह कदाचित् नीम भी हो सकता है और कदाचित् नीम न हो कर आम आदि अन्य भी हो सकता है ॥ ५५२ ॥
५५) 1 D सर्व भक्ष्यं केचिद् वदन्ति । ५५* १ ) 1 D विशेषो नास्ति 2 कथयन्ति । ५५ * २ ) 1 D सर्वजीवानां शरीरे ।