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- धर्मं रत्नाकरः
350) देवादिकृत्यरहिणों' गृहिणः प्रहीणाः शोच्याः सतामवमताः पशुभिः समानाः । जन्मान्तरे गुरुनिरन्तरदुःखदूना
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दीना न किंचन कदापि शुभं लभन्ते ॥ ६०
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[ ५.६० -
351 ) एवं कृत्वा कारयित्वा यतीनामाहाराचं यच्छतां नास्ति दोषः । पुण्यस्कन्धः केवलं देहभाजां संजायेत स्वर्गनिर्वाणहेतुः ॥ ६१ 352 ) प्रोक्तः स्वल्पः क्वापि यः कर्मबन्धः सारम्भत्वात्सर्वदास्त्येषं तेषाम् 1 इत्थं चेदं प्रोक्तयुक्त्यावसेयं सिद्धान्तार्थः शुद्धबुद्धयावबोध्यः ॥ ६२
353) इष्यते दोषलेशोऽपि प्रभूतगुणसिद्धये ।
यथा दष्टाङ्गुलिच्छेदश्छेकै जीवितहेतवे ॥ ६३
जो निकृष्ट गृहस्थ देव- गुरु आदि के विधेय सत्कार्य से रहित होते हैं उनके उपर सत्पुरुषों को तरस आता है व वे उन्हें पशुओं के समान तिरस्कार के पात्र समझते हैं । ऐसे दीन जन परभव में निरन्तर भारी दुःख से पीडित हो कर कभी भी कुछ हित को नहीं प्राप्त कर सकते हैं ॥ ६० ॥
इस प्रकार जो प्राणी आहारादिक को स्वयं बनाकर अथवा दूसरों से बनवाकर मुनियों के लिये देते हैं वे कुछ भी दोष के भागी नहीं होते, अपि तु उनके इससे जो पुण्यस्कन्ध का बन्ध होता है, वह उनके लिये स्वर्ग व मोक्ष का कारण होता है ॥ ६१ ॥
आगम में जो कहीं पर गृहस्थों के अतिशय अल्प कर्मबन्ध कहा गया है वह उनके आरम्भसहित होने के कारण सदा ही हुआ करता है । इस प्रकार युक्ति से इस कथनका निश्चय र के निर्मल बुद्धि से आगम के रहस्य को समझ लेना चाहिये ॥ ६२ ॥
जिस आरम्भ विशेष से अतिशय अल्प दोष के उत्पन्न होनेपर भी यदि बहुत गुणों की प्राप्ति होती है तो वह आरम्भ अभीष्ट माना जाता है । उदाहरणार्थ, यदि सर्प ने अंगुलि में लिया है तो प्राणरक्षारूप महान् लाभ को देखकर उस अंगुली का कटवा देना भी विद्वानों के द्वारा अभीष्ट माना गया है ॥ ६३ ॥
६०) 1 रहिता: 2 ज्ञाता: 3 पीडिता: । ६२ ) 1 कर्मबन्ध: 2 निश्चयं करणीयम्. 3 ज्ञातव्यः । ६३) 1 विचक्षणैः ।