________________
*१५४
[८. २६
- धर्मरत्नाकरा593 ) आरम्भजत्वमपि यद्गदितं तु तत्र
वच्मो वयं ननु निराक्रियते ऽत्र हिंसा । आरम्भतो ऽपि न हि यत्नवतां समस्ति
सन्तस्ततो वितरणे सततं यतन्ताम् ॥२६ 594) आरम्भतो यदि कुतो ऽप्युदयेत हिंसा
बन्धश्चिरं स्थितिमुपैति न सो ऽसुमत्सु । सदर्शनेषु नयनेष्विव रेणुजात
मित्यादिकं प्रवचने सविशेषमुक्तम् ।। २७ 595) संघस्य निरारम्भा मुनयो ऽपि चिकित्सितं वितन्वन्ति ।
किमुतान्ये किंचान्यत्माणावायोक्तिरपरथा विफला ॥ २८
शंकाकार ने जो यह भी कहा है कि, दान चूंकि आरम्भ जनित है, अतएव वह हिंसा का कारण होने से हेय है । उसके उत्तर में हम कहते हैं व निश्चित ही उस हिंसा का निराकरण करते हैं। जो प्रयत्नवान् पुरुष सावधानी से आरम्भकार्यको किया करते हैं वे आरंभ से भी उस हिंसा दोष के भागी नहीं होते हैं । इसीलिये सत्पुरुषों को निरन्तर उस दान के विषय में प्रयत्न करना चाहिये ॥ २६ ॥
यदि किसी आरंभ से हिंसा उत्पन्न होती है तो सम्यग्दष्टि प्राणियों में उससे उत्पन्न हुआ कर्म का बन्ध दीर्घ काल तक इस प्रकार नहीं स्थित रहता जिस प्रकार कि निर्मल नेत्रोंवाले प्राणियों के नेत्रों में गया हुआ धूलिका कण दीर्घ काल तक स्थित नहीं रहता, ऐसा प्रवचन में विशेषता पूर्वक कहा गया है ॥ २७ ।।
आरंभत्यागी मुनि भी संघ की चिकित्सा करते हैं अर्थात् रोग की परीक्षा कर के तदनुकूल औषधादिक की योजना करते हैं । फिर भला गृहस्थों के विषय में तो कहना ही क्या है - उन्हें तो वह करना ही चाहिये । दूसरे यदि ऐसा न माना जाय तो फिर प्राणावायपूर्व का विवेचन सब विफल होगा-प्राणावायपूर्व में जो संपूर्ण चिकित्सा विधि का सविस्तर वर्णन है वह व्यर्थ सिद्ध होगा ।। २८ ॥
२६) 1D भो. 2 D दाने. 3 P°समास्ति'. 4 दाने. 5 निरन्तरम्. 6 प्रयत्नं कुरुताम् । २७) 1 प्राणिषु । २८) 1 D ऊ [औ]षध. 2 D आत्मीया उक्तिविफला निषेधने ।