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- धर्मरत्नाकराः
725) पुद्गलार्ध परावर्तादृध्वं मोक्षगती' पुमान् । त्रिकोटिकोटिमध्ये हि स्थापितेष्वष्टकर्मसु ॥ ३
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726) अन्तरेऽत्र परीणामशुद्धित ऽहेः स्थितिं दहन् । वर्धमानो ऽनिशं शुद्धया ह्यनन्तगुणयाग्रणीः ॥ ४ 727) शस्ताशस्तम कृतिजर सवर्धनहानिंकृत् करोत्याद्यम् । स्थित्यनुभाग करणं तदधः प्रवृत्तिकं नाम ।। ५
728) अनन्तगुणया शुद्धया बध्नन् कर्माथ केवलम् । स्वल्पस्थितिरसोच्छ॑ित्त्यै ततो ऽपूर्वं करोति सः ॥ ६ 729) अवदाते परीणामहेतवे चानिवृत्तिकम् ।
एषामन्तर्मुहूर्तो हि कालः प्रत्येकमीरितः ॥ ७ 730) आद्यन्तरान्तराख्येन चरणेनापवर्तयेत् ।
अन्तर्मुहूर्ततो मिथ्याभावानन्तानुबन्धिनः ॥ ८
[ १०. ३
अर्धपुद्गल परावर्तन काल के पश्चात् ( भीतर ) मोक्षको प्राप्त होनेवाला श्रेष्ठ भव्य जीव आठों (सात) कर्मो को तीन कोडाकोडि ( ? ) ( अन्त: कोडा कोडि) के भीतर स्थापित करके इस at परिणामों की विशुद्धिसे पापकर्मों की स्थिति को भस्म करता हुआ उत्तरोत्तर अनन्त गुणी विशुद्धिसे निरंतर वृद्धिंगत होता है । उस समय वह स्थिति और अनुभाग को हीन करने के लिये प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग की वृद्धि और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागकी हानिको करनेवाले जिस प्रथम करण को करता है उसका नाम अधःप्रवृत्तकरण है । तत्पश्चात् कर्मको केवल बाँधता हुआ वह अनन्तगुणी विशुद्धिसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होकर कर्म की शेष रही अतिशय स्तोकस्थिति और अनुभाग को क्षीण करने के लिये दूसरे अपूर्वकरण को करता है। इसके पश्चात् वह निर्मल परिणामों के निमित्त तीसरे अनिवृत्तिकरणको करता है। इन तीनों करणों में प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र कहा गया है । अनिवृत्तिकरण कालका संख्यात बहुभाग जाकर अन्तरनामक करण के द्वारा - जिसके कि द्वारा मिथ्यात्व प्रकृतिकी अधस्तन व उपरिम स्थितियोंको छोड़कर मध्य की अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितियोंके निषेकोंका परिणाम विशेष से अभाव किया जाता है - अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व व अमन्तानुबन्धी चतुष्टयका अपवर्तन करता है। उस समय वह उक्त अनन्तानुबन्धी
३ ) 1 मोक्षज्ञात्वा । ४ ) 1 पापम्. 2 गुणी वर्धमानः सन्. 3 बुद्धया । ५ ) 1 विनाशाय । ६) 1 अनुभाग. 2 विनाशाय 3 करणम्. 4 स जीवः । ७) 1 निर्मलम् उज्ज्वलं वा ।