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- धर्म रत्नाकरः
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856) मद्यमांसमधुना नवनीतं तान्युदुम्बरफलानि तमीभुक् । Aroha ft महारससंज्ञं हिसनस्य मुर्खतस्त्विति हेयम् ॥ २९ 857 ) अत्रामुत्रानर्थ संपादि नानाजीवोत्पत्तिस्थानमित्यागमश्च । मद्यानेशुर्मूलतो यादवेन्द्रास्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयम् ॥ ३० 858) देवाद्यैः किल पीतं मद्यं तस्मा॑न्न॒ युज्यते पातुम् ।
न भवन्ति ते पिबन्तः कृत्यमकृत्यं न वा ततः कृतिनाम् ॥ ३१ 859 ) तज्जातजीवहतिसद्मं निषेव्यमाणं मद्यं विमोहयति मानसमङगभाजाम् । मुग्धा न धर्ममधियन्ति विडम्बनेन विस्मृत्य धर्ममधिकं च चरन्ति हिंसाम् ॥
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[ ११.२९
उक्त पाँचों पापों का पूर्णतया परित्याग करता है, किंतु गृहस्थ एकदेशरूप से ही उनका परित्याग करता है ) ॥ २८ ॥
मद्य, मांस, और मधु के साथ मक्खन, (पाँच) उदुंबर फल रात्रिभोजन, तथा महा- रससंज्ञक वस्तु ये नीलिका के समान हिंसा का मुख है । अर्थात् इनके सेवन से त्रसजीवों का अतिशय घात होता है । इसलिये इनका त्याग करना चाहिये ॥ २९ ॥
मद्यपान से इस लोक और परलोक में भी अनर्थ उत्पन्न होते हैं । तथा 'वह नाना जीवों की उत्पत्ति का स्थान है' ऐसा आगम वचन भी है । उस मद्य के सेवन से संपूर्ण यादव राजों का समूल नाश हुआ है । इसलिये वह मद्य न किसी को देना चाहिये और न पीना हो चाहिये ॥ ३० ॥
देवादिकों ने मद्यपान किया है ऐसा सुना जाता है । अतः उस मद्य को पीना योग्य नहीं है क्योंकि पीनेवालों का सर्वनाश होता है । इसलिये विद्वानों ने वह कुकर्म नहीं करना चाहिये ॥ ३१ ॥
उस (मद्य) में उत्पन्न हुए जीवों के घातका घर है । ( उसके पान से वे सब जीव नष्ट हो जाते हैं) । मद्य के सेवन से प्राणियों का मन मुग्ध होता है और मोहित मूढताको प्राप्तधर्म का अध्ययन नहीं कर सकते हैं । वे उससे प्रतारित होकर धर्म को भूल जाते हैं और अधिक हिंसा किया करते हैं ॥ ३२ ॥
२९) 1 रात्रिभोजनम्, D रात्रिभुक्. 2 D भांग. 3D विषम् 4 प्रथमतः 5 त्याज्यम् । ३०) 1 P. D नष्टा: 2 D यादवराजा । ३१) 1 देवादिपानात्. 2 ते देवा अपि मद्य पिबन्तः 3 मद्यपानात्, ततः कारणाद्वा । ३२) 1 तस्य मद्यस्य तस्मान्मद्याद्वा. 2 कथंभूतं मद्यम्. 3 कर्तृ. 4 प्राणिनाम्. 5 न प्राप्नुवन्ति ।