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१९६ - धर्मरत्नाकरः
[१०. २२अस्यार्थः- भगवदर्हाणीतागमानुज्ञा आज्ञा । रत्नत्रयविचारसों मार्गः । पुराणपुरुषचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेशः । यतिजनाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम् ! सकलसमयदलसूचनाव्याजं बीजम् । आप्तश्रुतव्रतपदार्थसमासालापोपक्षेपः संक्षेपः । द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णकभेदविस्तीर्णश्रुतार्थसमर्थनप्रस्तारो विस्तारः । प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः । त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतो ज्यतमदेशावगाहावलीढमवगाढम् । अवधिमनःपर्ययकेवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् ।
इसका अर्थ
१) भगवान अरहंत के द्वारा उपदिष्ट आगम की अनुमोदना करने का नाम आज्ञा है। उस आज्ञा के निमित्त से जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहा जाता है।
२) रत्नत्रय विषयक विचार की उत्पत्ति का नाम मार्ग व उससे होनेवाली तत्त्वरुचि को मार्गसम्यक्त्व जानना चाहिये।
३) शलाकापुरुषों के चरित्र के सुनने के अभिप्रायका नाम उपदेश और उससे होनेवाली तत्त्वरुचि का नाम उपदेशसम्यक्त्व है।
४) जो मुनिधर्म के निरूपणका पात्र है उसे सूत्र और उसके आश्रयसे होनेवाले श्रद्धान को सूत्रसम्यक्त्व कहते हैं।
५) समस्त आगमांशों का सूचक जो पद है उसका नाम बीज है । तथा उस के आश्रय से जो तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है उसे बीज सम्यक्त्व समझना चाहिये।
६) आप्त, श्रुत, व्रत, और पदार्थ के संक्षेपरूप कथन के प्रयत्नका नाम संक्षेप व उससे होने वाले तत्त्व श्रद्धान का नाम संक्षेपसम्यक्त्व है।
७) बारह अंग, चौदह पूर्व और प्रकीर्णक इन भेदों में विस्तीर्ण श्रुत के अर्थ के समर्थक प्रस्तार का नाम विस्तार है तथा उससे जो तत्त्वरुचि होती है उसका नाम विस्तारसम्यक्त्व है
८) जो प्रवचन के विषय में अपने को ज्ञान कराने में समर्थ अर्थ है उसके आश्रय से होनेवाली तत्त्वरुचि को अर्थसम्यक्त्व जानना चाहिये ।
९) केवलो, श्रुतकेवली और आरातीय आचार्य विरचित तीन प्रकार के आगम में पूर्णतया किसी एक का परिशीलन करने से जो तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है उसका नाम अवगाढसम्यक्त्व है।
१०) अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानसे अधिक पुरुष के प्रत्यय से जो सम्यक्त्व होता है वह परमावगाढसम्यक्त्व कहा जाता है।
गद्यम) 1 PD प्रधान:.2 PD संकोच: आक्षेप:.3 परमागम-शब्दागम-युक्त्यागमरूपस्य।