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- धर्मरत्नाकरः - 303) प्रदेशने प्रवर्तेत देशनायामिवानिशम् ।
प्रशस्यते तथापीदं देशनेव प्रदेशनम् ॥ १३ ॥ युग्मम् । 304) नाशुभस्य फलं दानं निदानं वा निदर्शनम् ।
कर्मणः क्वापि सिद्धान्ते दीयमानं विधानतः ॥ १४ 305) शुभे कृत्य कृते पूर्वे सर्वैः सर्वार्थवेदिभिः ।
प्रवर्तितव्यमन्यैश्च न्याय एष सतां मतः ॥ १५ 306) वचो ऽप्यशेषमेतेषां प्रमाणीक्रियते बुधैः।
विशिष्टा किं पुनश्चेष्टा दष्टादृष्टाविरोधिनी ॥ १६ 307) यथा तपस्तथा शीलं तीर्थनाथैरनुष्ठितम् ।
तथा दानमपि श्रेष्ठमनुष्ठेयमनुष्ठितम् ।। १७ 308) निष्क्रान्ता यद्भुवनपतयो नाभिजातप्रमुख्याः
संघायैते चतुरवगमा मार्गमादर्शयन्ति । तूष्णीभावादपि विहरणामीणयन्तो ऽङ्गिजातं ब्रू युदेयं स्वहितनिरतैस्तन्न किं धार्मिकाणाम् ॥ १८
प्रवृत्त रहते हैं तो भी इस सुवर्णादि दान की उस देशना के समान ही प्रशंसा की जाती है ॥ १२-१३॥
____ यह दान अशुभकर्म का फल अथवा कारण है, इस प्रकार का विधिपूर्वक आगम में दिया जानेवाला उदाहरण कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है ॥ १४ ॥
सर्वज्ञों ने पहले शुभ कर्म के करनेपर तदनुसार सब अन्य (छद्मस्थ भी) प्रवृत्त हुआ करते हैं, यही न्याय सज्जनों को अभीष्ट है।।१५॥
___ विद्वान् उनके – सर्वज्ञों के संपूर्ण वचन को प्रमाण मानते हैं । ठीक है - क्या कभी ऐसी कोई प्रवृत्ति देखी गई है जो प्रत्यक्ष के विरुद्ध हो ? अर्थात् नहीं देखी गई ॥ १६ ॥
तीर्थंकरोंने जिस प्रकार तप और शील का परिपालन किया है उसी प्रकार उन्होंने आचरणोय उस श्रेष्ठ दान का भी परिपालन किया है ॥१७॥
नाभिराज के पुत्र भगवान ऋषभनाथ को आदि लेकर इन सब ही लोकनायकोंने
१३) 1 P 'यथापीदं । १४) 1 कारणम् । १५) 1 करणीये. 2 कारणाय. 3 P पूर्वैः । १८) 1 दीक्षां गताः. 2 ज्ञानवन्तः ।