________________
-४. १०५ ]
साधुपूजा फलम् -
285) इदं विमलमा सो विपुलसंपदामास्पदं
-
पदं च यशसां परं परमपुण्यसंपादकम् । मुनीन्द्रजनपूजनं जनितसज्जनानन्दनं विधाय विधिनाधुनाप्यवधुनातिं धन्यो ऽधमम् ॥ १०३
286) दीनादीनामपि करुणया देय मौदार्ययुक्तै - युक्तं दानं स्वयमपि यथा तीर्थनाथैर्वितीर्णम् । पात्रापात्रापरिगणनया प्राणिनां प्रीणनाय स्यात्कारुण्यं कथमितरथा' धर्मसर्वस्वकल्पम् ॥ १०४
287) अत्रैव जाति जनः सुभगं भविष्णु ' - राढ्यं भविष्णुरपत्र' परोपकारी । कश्चित्कृती च सुकृती च कृतार्थजन्मा दानं ददाति विपुलं पुलकाञ्चिताङ्गः ।। १०५
चतुर्थो ऽवसरः ॥ ४ ॥
८३
जो यह मुनींद्रजनों की पूजा महती विभूति का कारण, कीर्ति का उत्कृष्ट स्थान, अतिशय पुण्यकी उत्पादक और सज्जन मनुष्यों को आनन्द उत्पन्न करनेवाली है; उसको विधि - पूर्वक कर के निर्मलबुद्धि पुण्यात्मा पुरुष निकृष्ट पाप को नष्ट किया करता है ॥ १०३ ॥
औदार्य गुण के धारक सज्जनों को दोन व अन्धे आदि जीवों को भी करुणा भाव से इस प्रकार वह दान देना चाहिये जिस प्रकार कि स्वयं तीर्थंकरों ने भी उस योग्य दान को करुणाबुद्धि से दिया है । पात्र और अपात्र का विचार न कर के दिया गया वह करुणादान प्राणियों के लिये आनन्द का कारण होता है । सो ठीक भी है - कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर वह दया धर्म का सर्वस्व कैसे हो सकती थी ? ॥ १०४ ॥
A
जो परोपकारी दाता रोमांचित हो कर हर्ष से विपुल दान को देता है वह विद्वान और पुण्यवान् है और उसका जन्म कृतार्थ है, ऐसा लोग यहीं पर कहते हैं, तथा वह परजन्म. में सुंदर, भाग्यवान् व धनाढ्य होनेवाला है ॥ १०५॥
इस प्रकार चौथा अवसर समाप्त हुआ || ४॥
+
१०३) 1 मुनीन्द्रजनपूजनम् 2 पञ्चमकाले 3 दूरीकरोति. 4 पापम् । १०४ ) 1 अन्यथा | १०५) 1 भवितुमिच्छु: 2 इहलोके ।