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- आहारदानादिफलम् - 178) मन संरचयता प्रतिमाप्रतिष्ठी
आत्मा नरोत्तमपदे गमितः प्रतिष्ठाम् । तन्नास्ति यन्न विहितं स्वहितं प्रशस्तं
तन्नास्ति यन्न दुरितं निखिलं निरस्तम् ॥ ५५ 179) स्वर्विषयमुक्तिभूर्यं स्वहस्तितं सौख्यपत्रमालिखितम् ।
श्रीमुक्तेरिव दूतीं कारयता जिनपतिप्रतिमाम् ॥ ५६ 180) सत्पुरुषाणां मध्ये कृतो निबन्धो निवारितं पापम् ।
जिनबिम्बविधापनतः समासतः फलमिदं सिद्धम् ॥ ५७
जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा करानेवाले पुरुष ने अपनी आत्मा को पुरुषोत्तम के पद पर प्रतिष्ठित कराया है - उत्तम पुरुष की अवस्था को प्राप्त कराया है । ऐसा प्रशंसनीय कोई आत्महित नहीं है जिसे इसने नहीं किया हो, तथा ऐसा कोई पातक नहीं है, जिसे उसने नष्ट नहीं किया हो ॥ ५५ ॥
श्रेष्ठ मुक्ति की दूती जैसी जिनेन्द्र की प्रतिमा को निर्मापित करानेवाले सद्गृहस्थने स्वर्गीय विषयभोग की भूमि को अपने हाथ में कर लिया, ऐसा मानो सुख का पत्र (रसीद), ही लिख दिया है । तात्पर्य यह है, जिन प्रतिमा को निर्माण करानेवाला भव्य जीव शीघ्र ही स्वर्ग व मोक्ष के सुख को प्राप्त किया करता है ।। ५६ ॥
जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा-विधि से मनुष्य सत्पुरुषों के समूह में अपना निबंधसंबंध स्थापित कर लेता है, तथा पाप को रोक देता है । यह जिनबिंब स्थापन का फल संक्षेप से सिद्ध है - कहा गया है ॥ ५७ ॥
५५) 1 मनुष्येन.2 P प्रतिमापदिष्टा. अप्रतिष्ठा तिमा. 3 नीतः. 4 कृतम् । ५६) 1 स्वर्गगोचर. 2 निर्मापकेन । ५७) 1 निदानं वा संबन्धः ।