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- साधुपूजाफलम् - 188) क्लेशापहं सपदि सुन्दरनामधेयं
स्मृत्वाप्यमुष्य परिपुष्यति भागधेयम् । आलापमात्रमपि लुम्पति पातकानि
कां योग्यतां तनुमतां तनुते न योगः ॥७ 189) श्रीसंघे परिपूजिते किमु न यत्संपूजितं पूजकै
रेतस्मिन् गृहमागते किमु न यत्कल्याणमभ्यागतम् । एतत्पादसरोजराजिरजसा पुंसां महापातकं
मूर्धस्थेनं विलीयते यदधिका शुद्धिस्तदत्राद्भुतम् ॥ ८ 190) यत्किंचनात्र भक्त्या विभाजितं वितनुते फलं विशदम् ।
तोयमिव शुक्तिसंपुटपतितं मुक्ताफलं विमलम् ॥९
इस संक्लेश के नाशक संघ के संदर नाम के स्मरण मात्र से भी प्राणी का भाग्य (पुण्य) शीघ्र ही परिपुष्ट होता है । इसके नामोच्चारण से भी पाप नष्ट होते हैं। इस प्रकार उसका संबंध प्राणियों की कौनसी योग्यता को विस्तृत नहीं करता है ? अर्थात् संघ की भक्ति से मनुष्य विशेष योग्यता को प्राप्त करता है ॥ ७॥
पूजकों के द्वारा श्रीसंघ की पूजा की जानेपर अन्य कौन नहीं पूजा गया? अर्थात् संघ की पूजा से देवपूजा तथा शास्त्रपूजा आदि का भी फल प्राप्त होता है । इस श्रीसंघ के घर पर आने से कौनसा कल्याण अपने घर में नहीं आया? अर्थात् संघ के घर पर आने से कुटुम्ब का महान् हित होता है । मस्तक पर लगाई गई संघ के चरणकमल की रज से पुरुषों का महापातक नष्ट होकर उससे जो अधिक शुद्धि होती है, यह आश्चर्य की बात है । तात्पर्य, यह है कि रज (धूलि) मलिन है और मलिन के संघ से कभी शुद्धि नहीं होती परन्तु इस पवित्र संघ के चरण स्पर्श से अतिशय पवित्रता को प्राप्त हुई उक्त रज के मस्तकपर लगाने से जीव का पापमल नष्ट होता है । इसलिये उससे आत्मा के शुद्ध होने में कोई आश्चर्य नहीं है ॥८॥
यहाँ जो कुछ भी अतिथि के लिये भक्तिपूर्वक विभाजित किया जाता है--दिय जाता है - वह दाता के लिये इस प्रकार निर्मल फल को विस्तृत करता है जिस प्रकार कि सीपके मध्य में गिरा हुआ जल निर्मल मोती को विस्तृत करता है ॥ ९ ॥
७) 1 विनाशकम्. 2 आख्यम्. 3 संघस्य. 4 पोषयति. 5 सौभाग्यम्. 6 प्राणिनाम्. 7 संघस्य संयोगः। ८) 1 जनैः वा पूजाकरणशीलै:. 2 श्रीसंघे. 3 संघस्य.4 धूल्या. 5 मस्तकस्थेन. 6 जनेष संघष वा-7 आश्चर्यम् । ९) 1 संघे. 2 विभागं कृतम्. 3 विस्तारयति. 4 निर्मलं बहुमूल्यं वा।