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- धर्म रत्नाकरः
247 ) बन्धून् बन्धनिबन्धनं' सनिधनं बाध्यं धनं धीधनाश्चित्रं पुत्रकलत्रमित्रनिवहं निर्यन्त्रणकारणम् । ये ँ संचिन्त्य विचारचारुमतयो निर्मुक्तये तस्थिरे ते चिन्तामणिवद्भवन्ति भविनां पुण्यात्मनां मन्दिरे ॥ ६५ 248) ये स्त्रैणं' न तृणाय रूपरुचिरं लोष्टाय नाष्टापदं
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रम्यं धर्मं सुधाविधानधवलं प्रालेयशैलोपमम् । मन्यन्ते न कुटीरकाय मुनयो धन्यस्य धामजिरे ते तिष्ठन्ति महौषधानि यदि वा स्युः पुण्यभाजः करे || ६६ 249 ) तथ्यं पथ्यंमगर्वितं सुनिपुणं माधुर्यवर्यं वचः
कार्ये विचार्य जल्पति धिया यो ऽल्पं विकल्पक्षमम् । धन्यैर्मन्दिरचत्वरे' मुनिगणश्चैवंविधो ऽवाप्यते सत्कल्पद्रुमपादपः परिसरे' पुण्यात्मभिर्लभ्यते ॥ ६७
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असत्य का त्याग कर दिया है, जो चोरी से दूर व स्त्री के मुखावलोकन जनित सुख से विमुख हैं, जिनका मोती आदि से ममत्व नष्ट हो चुका है, जो मानो मूर्तिमान धर्म के ही समान हैं, जिन्हों ने गर्व और काम को जीत लिया है, तथा जिनका राग- भाव मन्द हुआ है; ऐसे वे मुनिराज अपने चरणरज से पुण्यवानों के घर को पवित्र किया करते हैं ॥ ६४ ॥
जो निर्मल बुद्धिरूप धन के धारक सज्जन बन्धुओं को कर्मबन्ध के कारण, धन को नश्वर और पीडा का कारण, तथा पुत्र, पत्नी एवं मित्रों के समुदाय को अनेक दुःखों का कारण समझ कर विवेक से सुन्दर बुद्धि को धारण करते हैं। मुक्ति प्राप्ति के लिये स्थिर रत्नत्रय में उद्यत होते हुए पुग्यवान भव्य जनों के भवन में चिन्तामणि के समान सुशोभित होते हैं ॥ ६५ ॥
जो सुन्दर युवतिसमूह को घास के समान व सुवर्ण को मिट्टी के ढेले के समान भी नहीं मानते हैं, जो चूना के पोतने से शुभ्र ऐसे हिमालय पर्वत के समान उन्नत सुंदर प्रासाद को घास की झोंपडी के समान भी नहीं समझते है, ऐसे वे मुनिराज पुण्यवान् पुरुष के गृह के मध्य में आकर रहते हैं अथवा मानो वे पुण्यवान् भव्य के हाथ में महान् औषधि के समान प्राप्त होते हैं ॥६६॥ जो मुनिसमूह कार्यवश बुद्धि से अतिशय विचार करके सत्य हितकर, गर्व से रहित व
६५) 1 बन्धनकारणम्. 2 सविनाशम् 3 बाधाकारकम् 4 समूहम्. 5 पीडानाम्. 6 मुनय: 7 मुक्तिकारणाय 8 स्थितवन्त: । ६६ ) 1 स्त्रीणां रूपं स्त्रैणम्. 2 सुवर्णम्. 3 गृहम्. 4 हिमालयसदृशम्. 5 पुण्यपुरुषस्य 6 गृहप्राङ्गणे. 7 इव. 8 पुण्यपुरुषस्य । ६७ ) 1 सत्यम्. 2 हितम् 3 प्रवीणम्. 4 मिष्टतया प्रधानम्. 5 गृहप्राङ्गणे 6 लभ्यते. 7 गृहनिकट ।