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-३. २५]
- आहारदानादिफलम् - 142) पुचपुरिसदाणहलु सुणेविणु लोहु समुब्भवंतु णियमेविणु।
संसारासारत्तु मुणेविणु णियदव्वाणुसारु सुमरेप्पिणु ॥ २२* १ 143) देइ ण जो घरत्यु सो केहउ किं माणुसु चिडउल्लउ जेहउ ।
णियडिंभई अप्पाणु जि पोसइ मुवउ ण जाणहँ कहिं जाईसइ ॥२२ * २ 144) श्रेयानादिमदेवदानमहितः श्रीचक्रवर्तीरितः
पञ्चाश्चर्यमवापं भूपतिर्मधुश्रीवज्रजचोंऽहतेः । अन्येषां जिनयोगिनां वितरणात् प्रापुर्भवे ऽस्मिन्नपि
द्वित्रैर्मुक्तिपदं परे कतिपयैर्मोगांश्च कुर्वादिषु ॥ २३ 145) अष्टापदं' यथेष्टं तु निष्क्रान्तो श्रीजिनेश्वरैः।
स्वयमदायि सत्त्वेभ्यो मध्यस्थैरपि निश्चितम् ॥ २४ 146) इति प्रसिद्धं परमागमे ऽपि तथापि भोगा विविधाश्च रोगाः ।
ततो गृहस्थैर्यतिभिश्च दानं यथोचितं देयमिहानिदानम् ॥ २५
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पूर्व पुरुषों ने दान दे कर जो फल प्राप्त किया है उसे सुनकर, लोभ की उत्पत्ति को नियंत्रित कर संसार की असारता को जानकर और अपने द्रव्य के अनुसार दान देने की योग्यता का स्मरण कर जो गृहस्थ दान नहीं देता है वह गृहस्थ कैसा है, वह क्या मनुष्य है ? वह उस चिडिया के समान है जो अपने बच्चों का पोषण करना ही जानता है । वह मरने पर कहाँ जायेगा, यह हम नहीं जानते हैं ॥ २२*१-२ ।।
· श्रेयांस राजा आदि जिनेन्द्र को आहारदान देने के कारण महिमा को प्राप्त हुआ, उसकी भरत चक्रवर्ती ने भी स्तुति की। राजा मधु (१) और वज्रजंघ ने जो मुनि के लिये आहारदान दिया था उसके प्रभाव से उन्होंने पंचाश्चर्यों को प्राप्त किया था । अन्य तीर्थकरों व योगिजनों को आहारदान दे कर कितने हो भव्य जीवों ने इसी भव में और कितनों ने कुरुदेवकुरु व उत्तरकुरु - आदि भोगभूमियों के भोगों को भोगकर दो, तीन अथवा कुछ ही भवों में मोक्ष को प्राप्त किया है ॥ २३ ॥
दीक्षा लेते समय स्वयं तीर्थंकरों ने भी-जो कि मध्यम स्वभाव को प्राप्त थे-प्राणियों के लिये यथेष्ट सुवर्ण को दिया है, यह निश्चित है ॥ २४ ॥
इस प्रकार यद्यपि परमागम में भी दान के विषय में प्रसिद्ध है, तो भी नाना प्रकार के rrrrrrrrrrrrr
२२*२) 10 °अजि पोसइ. 2D °जाणहि । २३) 1 श्रेयान् राजा प्रथमदाता. 2 आदिनाथदानात्. 3 P °महिमः. 4 P °श्रीचक्रवर्तीडितः, श्रीभरतचक्रवर्तिना ईडितः पूजितः. 5 प्राप.. 6 दातृ नाम. 7 अंहतेर्दानात्. 8 दानात् . 9 जन्मभिः. 10 कुरुभोगभूम्यादिषु । २४) 1 सुवर्णम्. 2 दीक्षाकाले. 3 दत्तम् . 4 सत्यं कृतम् । २५) 1 ज्ञात्वा. 2 यथायोग्यम् ।