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[३. २६
- धर्मरत्नाकरः - 147) बालो बाढं प्रकुपितमनाः कामिनी वा कुतश्चित्
प्राप्ते ऽभीष्टे प्रहपिततनुर्भक्ष्यभूषादिरूपे । स्वामिन्युच्चै रचयति चट्न् कोटिशो ऽभीष्टचेष्टा
दानं प्रीतिप्रमुखवचनं सिद्धतन्त्र प्रशस्तम् ॥ २६ 148) दृष्टान्तमात्रकं चेदं बालकान्ताप्रसादनम्' ।
विश्राणनफलं कृत्स्नं केवलं वक्ति केवली ॥ २७ 149) ज्ञात्वैतच्च कलेवरं च विभवं पुत्रप्रियाधं तथा
सर्व नश्वरमाशु बुद्बुदतडित्संध्याशरन्मेघवत् । प्रौढं शंबलमाकलय्यं नियमाज्जन्मान्तरं गत्वरैर्दानं किं न विधीयते शुभमहालाभे प्रयत्नार्थिभिः ॥ २८
भोगों को रोग जैसा समझकर गृहस्थ और यति दोनों को ही अपने योग्य दान निदानभावना से रहित होकर देना चाहिये ॥ २५ ॥
जब बालक अथवा कामिनी स्त्री किसी कारण से मन में अतिशय कुपित होते हैं, तब उनको मोदकादि भोज्य पदार्थ और अलंकारादि के देने पर उनका शरीर प्रफुल्लित-रोमांचितहो जाता है अर्थात् वे प्रसन्न हो जाते हैं। और अनेक इष्ट क्रियाओं को करते हुए वे अपने स्वामी के बारे में मधुर भाषण करते हैं । इसलिये प्रीति से परिपूर्ण वचनों का हेतुभूत वह दान अपनी निश्चित कार्यसिद्धि का प्रशस्त तन्त्र - उपाय है ॥ २६ ॥
बालक और स्त्री की प्रसन्नता का यह केवल दृष्टान्त दिया गया है । दान के संपूर्ण फल का कथन तो केवल केवली ही कर सकते हैं ॥ २७ ।।
यह शरीर, वैभव तथा पुत्र व पत्नी आदिक कुटुम्बीजन ये सब बुलबुले बिजली सन्ध्या तथा शरत्कालीन मेघ के समान शीघ्र नष्ट होनेवाले हैं । ऐसा समझकर अन्य भव को जानेवाले भव्य जीव दान को उत्तम कलेवा जैसा समझकर उत्तम लाभ के लिये उसे प्रयत्नपूर्वक क्यों नहीं देते हैं ? तात्पर्य - दान से जो महापुण्य प्राप्त होता है उससे जीव जन्मान्तर में महासुखी होता है । जैसे कलेवा लेकर ग्रामान्तर को जानेवाला [प्रवासी सुखी होता है वैसे ही दानरूप कलेवा को लेकर जन्मान्तर को जानेवाला ] आत्मारूपी प्रवासी भी सुखी होता है ॥२८॥
२६) 1 अतिशयेन. 2 कस्मादपि स्थानात्. 3 वस्तुनि. 4 बालस्य भक्ष्यं, कामिनीनां भूषा आहरणं वस्त्रम । २७) 1 प्रसन्नत्वम् . 2 आहारदानफलम् . 3 समस्तम्. 4 केवलज्ञानी कथयति । २८) 1 लक्ष्मीम. 2 विनश्वरं ज्ञात्वा. 3.[?]
4 कलयित्वा. 5 गन्तु कामे:. 6 दीयते. 7 धनिभिः ।