Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 15
________________ श्रावक धर्म का संक्षिप्त विवेचन है। मिथ्यात्व को हेय बताकर उनको त्यागने का उपाय भी बताया है। अन्याय, अनीति, लोक विरुद्ध, धर्म विरुद्ध, जाति विरुद्ध गर्हित निन्द्य आचारों के त्याग का उपदेश भी इस अध्याय में है। मिथ्यात्व की भेद, प्रभेद पूर्वक प्ररूपणा, अभक्ष्य क्या है ? अभक्ष्य सेवन से क्या हानि है ? इसका भी इस अध्याय में संक्षिप्त विवरण है। हिन्दू धर्म भी अभक्ष्य भक्षण का निषेध करता है इस बात को प्रस्तुत कर भव्य जीवों को पाठकगण को अभक्ष्य भक्षण से विरक्त होने की विशेष प्रेरणा दी है। आश्रमों के नाम बताकर गृहस्थाश्रम का वर्णन अपनी लेखनी का मुख्य विषय घोषित किया है । अनन्त संसार का कारण मिथ्यात्व है उसके आश्रय से जो प्रवृत्ति करती है वह अनन्तानुबंधी कषाय है जो सम्यक्त्व का घात करती है और मुख्य रूप से सम्यक्त्वाचरण चारित्र को रोकती है। मनुष्य भी इनके उदय से ग्रस्त हैं और हिताहित के विवेक से रहित पशुओं की तरह आचरण करते हैं। अन्याय मार्ग पर आरूढ़ होकर लोक विरुद्ध, धर्म विरुद्ध, जाति विरूद्ध पर्हित निन्द्य आचार में ही रच-पच जाते हैं फलतः दीकाल तक जन्म मरण करते हुए देखा बरहा है। परि सुख शान्ति की चाह है तो सर्वप्रथम हम मिथ्यात्व रूपी हलाहल विष की पहचान करें और उससे बचने का उपाय ढूंढे, योग्य पुरुषार्थ करें। प्रथम अध्याय में वर्णित उक्त विषयों को जिनागम का सार जानकर उनका उचित श्रद्धान करना चाहिए । • द्वितीय अध्याय द्वितीय अध्याय में उस सच्चे धर्म का स्वरूप बतलाया गया है जिससे सदा-सदा के लिए दुःख से छुटकारा मिल सके।आज विषयाकाङ्क्षा एवं तृष्णा की उत्ताल तरणों से मानव इतना अधिक संत्रस्त है कि उसको अवकाश ही नहीं मिलता कि वह स्व स्वरूप का विचार कर सके। स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती है - कभी दारिद्र्य से पीड़ित होकर कराहता है तो कभी पारिवारिक झंझटों से झुंझलाता है । कभी उसे शारीरिक पीड़ा सताती है तो कभी मानसिक अशान्ति ! इस अध्याय में गुरूदेव ने उन जीवों के लिये ही . करूणाकर दुःखों से छूटने का सरल और सच्चा उपाय बताया है। वह उपाय उनकी कोई व्यक्तिगत कल्पना नहीं, जिनवाणी से प्राप्त एक सच्ची दिशा है। दर्शन पाहुड़ में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने जैसा कि स्पष्ट कहा है - (२२)

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