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हैं जो अन्य भाषाओं में कुछ परिवर्तन से या मूल रूप में आज भी प्रयुक्त होते हैं
अक्का-बहिन (कन्नड) अच्चाइय-व्यथित (अच्चिग-व्यथा-कन्नड़) अज्जिआ--दादी (अज्जी-कन्नड, आजी-मराठी) कण्ण-गोल (कण्ण-कन्नड) गय्याल—जिद्दी (मूर्ख-कन्नड) डग्गल-घर के ऊपर का भूमितल (डागला-राजस्थानी) पत्थारी-शैया, बिछौना (पत्थारी-गुजराती, पथरणा-राजस्थानी) मग्गओ-~-पीछे (मग-मराठी) हडप्प–ताम्बूलपात्र (हडप-ताम्बूल रखने की छोटी थैली-कन्नड)
अनेक स्थलों पर तो स्वयं व्याख्याकार भी देश विशेष की भाषा या शब्द का उल्लेख करते हैं । जैसे
अण्णं इति मरहट्ठाणं आमंतणवयणं । अवसावणं लाडाणं कंजियं भण्णई । महाराष्ट्रमवोगिल्लमवाचालम् । उण्ण त्ति लाडाणं गड्डरा भण्णंति । एआवन्ती सव्वावन्ती ति एतौ द्वौ अपि शब्दौ मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध या एतावन्तः""। लाडाणं कच्छा सा मरहट्ठयाणं भोयडा भण्णति । पेलुकरणादि लाटविषये रूतप्राणिका (पूणिका ?) महाराष्ट्रविषये सैव पेलुरित्युच्यते ।
किसी भी भाषा के विकास का महत्वपूर्ण सूत्र ग्रहणशीलता होता है। संस्कृत आदि भाषाओं के कोशग्रन्थ अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करके ही समृद्ध बने हैं । आप्टे, मोनियर विलियम्स आदि विद्वानों ने अपने संस्कृत कोशों में अनेक देशी शब्दों का संग्रहण किया है। आप्टे के संस्कृत-इंग्लिश कोश में बर्बरीक, बर्कर, चिक्खल, लड्डू आदि शब्द संग्रहीत हैं । ये शब्द देशी कोशों में इस प्रकार हैं-बब्बरी, बक्कर, चिक्खिल्ल (चिवखल्ल), लड्डुग (लड्डुय) आदि । अर्थ दोनों कोशों में समान हैं ।
यहां डा० शिवमूर्ति का यह मंतव्य भी उल्लेखनीय है- 'कोई भी साहित्यिक भाषा लोक भाषा के स्तर से उठकर ही साहित्यिक भाषा बनती है। ऐसी स्थिति संस्कृत की भी रही है। पाणिनि जैसे वैयाकरणों ने इसका संस्कार किया। इस प्रक्रिया में कितनी ही देश्य शब्दावलि संस्कृत हो उठी। अष्टाध्यायी के उणादि प्रत्यय इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं । पाणिनि के समय में भी शिक्षितों की भाषा से अलग हटकर कुछ भाषाएं थीं जिन्हें
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