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[ 19 अत हे मुनियो मे श्रेष्ठ मुनि आप एक ऐसे व्याकरण ग्रन्थ की रचना कीजिए जो सभी प्रकार के लोगो को लाभ पहुचा सके ।
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प्रभावकचरित द्वारा वरित यह 'अभ्यर्थना' यद्यपि कवित्वपूर्ण है फिर भी तथ्यों से दूर नही कही जा सकती । श्राचार्य हेमचन्द्र का शब्दानुशासन निश्चित ही परम्परा मे लिखे गये एकागी व्याकरणो मे श्रद्वितीय है । संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश तीनो भाषा के व्याकरण का एकत्र समाहार सिद्धराज की अभ्यर्थना का फल भले ही न माना जाय परन्तु इस अवसर की ऐतिहासिकता मे सन्देह करना बिल्कुल गलत होगा | उज्जयिनी की विद्वत्परम्परा का प्रतिस्पद्ध सिद्धराज जयसिंह यदि इस प्रकार के ग्रन्थ का निर्माण करवाकर भोज के समान या उससे भी वढ कर यशःकीर्ति पाना चाहे तो यह भी असंभव नही । अस्तु प्रभावकचरित द्वारा दिया गया यह विवरण ऐतिहासिक माना जाना चाहिए ।
सिद्धराज की इस अभ्यर्थना को सुनकर आचार्य बोले 'आपके द्वारा इच्छित कार्य की पूर्ति हमारा अपना कर्त्तव्य भी है । काशमीर देश मे स्थित 'श्री भारतीदेवी' के पुस्तकालय मे आठ व्याकरण के ग्रन्थ हैं । उन्हे अपने आदमियो द्वारा मगवा लीजिये | इनकी सहायता से भाषा का व्याकरण वैज्ञानिक रीति से तथा सुकरतापूर्वक लिखा जा सकेगा ।" 1
उपर्युक्त विवरण कुछ नवीन तथ्यो पर प्रकाश डालता है । एक तो इससे हेमचन्द्र की काश्मीर यात्रा का कारण मालूम हो जाता है, दूसरे यह भी ध्वनित होता है कि आचार्य हेमचन्द्र की व्याकरण के ग्रन्थनिर्माण मे पहले ही से रुचि थी परन्तु उसके लिये अध्ययन की आवश्यक सामग्री न होने से वे इस कार्य को न कर सके होगे । सिद्धराज जयसिंह के सहयोग से उन्हें पूर्व वैयाकरणो की आठो पुस्तकें मिली और उन्होने इन ग्रन्थो की कमियो को ध्यान मे रखते हुए एक सर्वथा नवीन व्याकरण ग्रन्थ का निर्माण कर दिया । सिद्ध हैमशब्दानुशासन का संस्कृत व्याकरण से सम्वन्धित भाग सराहनीय होते हुए भी पूर्ववैय्याकरणो का अनुसरण कहा जा सकता है । परन्तु इसका प्राकृत व्याकरण से सम्बन्धित भाग, अपभ्रंश व्याकरण, लिंगानुशासन आदि सर्वथा नवीन और प्रशसनीय हैं । भाषाशास्त्र के विभिन्न अ गो का जितना साङ्गोपाङ्ग विवेचन आचार्य हेमचन्द्र ने इस एक ही ग्रन्थ और उसके परिशिष्टो ( लिंगानुशासन) श्रादि को मिलाकर कर दिया, इसके पहले कोई भी वैय्याकरण ऐसा करने का साहस न कर सका था ।
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प्रच, श्लोक 25, 26, 27