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है,
निश्चय करी
अब इस ग्रंथ की समाप्ति करते हुये लिखिये है कि जितने जैन शास्त्र है तिन सबका सार इतना ही व्यवहारकरी पांच परमेष्ठी की भक्ति भीर श्रभेव रत्नत्रयपथी निजात्मा की भावना ये है, भव्यात्मा हो ! यह बात तब समझ सकेगा श्रापणान्त भाव से निरन्तर जैन शास्त्र का करें देखो प्रबोधसार ग्रंथ में लिखा है कि
ही शरा
जब कि स्वाध्य य
भूत बोधप्रदीपेन शासन वर्ततेऽधुना । विना श्रुतदीपन सबै विश्वं तमोमयम् ॥ और भी तदुक्त गाथा -
सरणगाण चरितं सरणं सेवेह परमसिद्धाणं । भणं किंपि न सरणं संसारसंसरणंताणं ॥ और भी सामायिक पाठ में कहा है कि
एको में शाश्वतदचात्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः शेष बहिर्भवा भावाः सर्वे संयोग लक्षणाः ॥ १३॥ इसका अर्थ विचार करके विषय कषाय से विमुख होकर शुद्ध चैतन्य स्वरूप की निरन्तर भावना करनी चाहिये । यही मोक्ष का मार्ग है, तदुक्त गाया
जे खिरन्तर मारिय विसयकसामहं जतु । मोक्खह कारण पतज प्ररणरणतं तणं मंतु ॥ जंसक्कतं कीरह जंरग सके तं च सद्दह्णं । सदहमारा जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥ तवयरणं वयधरणं संजम सरणं सम्ब जीव दयाकरणं । समाहिमरणं चउग दुक्खं निवारेई ||
सुइ कालो थोवो वयं च दुम्मेहा । तंवरि सिखियध्वं जं जरमरणं वलयं कुाई ॥
इसी तरह समाधिशतक में भी कहा है-
तव मात्तसरान् पृच्छेत् तदिन्चेसमरो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥१५३॥
सारांश इस पंचमकाल में जैन शास्त्र बड़े उपकारी हैं, यावत् काल इनका अवगाहन रहे लावन काल ज्ञान का प्रकाण होय, इन्द्रियों का अवरोध होय, जैसे सूर्य के उदय उद्योत होय और घूषू (उल्लू) नाम जीव ग्रंथ हो जाय है, जिस शांत भाव से निरन्तर शास्त्राभ्यास करना सर्वथा योग्य है 1
अथ अन्तिम मङ्गल स्मरण
येऽतीतापेक्षयानन्ताः, संख्येया वर्तमानतः । श्रनन्तानन्तमानास्तु भाविकालव्यपेक्षया ॥ तेऽन्तः सन्तु नः सिद्धाः, सूर्य माध्यायसाधवः । मङ्गलं गुरवः पंच, सर्वे सर्वत्र सर्वदा ||१|| अर्थात् जो प्रतीत काल की अपेक्षा अनन्त संख्या वाले हैं, वर्तमान काल की घपेक्षा जो संख्यात है तथा भविष्यत्काल की अपेक्षा जो श्रनन्तानन्त संख्यायुक्त हैं, ये समस्त अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधुरूप पंचगुरु समुदाय सदाकाल सर्वत्र हमारे लिये मङ्गल स्वरूप होवें ।
'जयतु सदा जिनधर्मः सूरिः श्रीशान्तिसागरो जयतु' यह जैन धर्म सदा जयदन्त हो तथा भाद्रपद शु० २ श्री वीरनिर्वाण सं० २४८२ विक्रम सं० २०१२ सन् १६५६ ६० को ८४ वर्ष की आयु में दिवङ्गत पाचार्य वयं श्री शान्तिसागर जी महाराज सवा जयवन्त रहें ।
* इति ग्रन्थ समाप्ति