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५३. कि: प्रवाचा में जीव मरण करता नहीं सम्यग्दृष्टि होने तक मरण नहीं करता है। (देखो मो० यह बत ते हैं
क० गा० ५५०, ५६०, ५६१) । १. मिश्र गुण स्थानवर्ती जीव, २-पाहारक मित्र
५४. बक्षायु कृतकृत्य घेदक सम्याद्धि मरकर चारों
गतियों में किस तरह जाता है ? यह बताते हैंकाययोगी जीव, ३. नित्य पर्याप्त मिथकाययोगी जीव,
दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण करने का प्रारम्भ करने ४. क्षपक श्रेणी धारक जीव, ५. उपशम श्रेणी नहाने
वाला जावं को कृतकृत्य पदक सभ्य कहते हैं । वाला जीध (1वें अपूर्व करण गुण स्थान के प्रथम भाग
कृतकृत्य वेदक का काल अन्तर्मुहुर्त है। उस अन्तम हुतं में) ६. प्रथमोपशम सम्यक्त्वी जीव, ७. सातवें नरक में
के चार भाग करना चाहिये यदि प्रथम भाग में मरण २रे ३रे ४थे गुण स्थान धारी जीव, ८. अनन्तानुबन्धी
होय तो देव अथवा मनुष्य गति में जायेगा । यद २रे के विसंयोजन किया हुमा जीव, यदि मिथ्यात्व गुण स्थान में लौटकर आया हो तो एक अन्तर्मुहतं तक नहीं यदि ३रे भाग में मरे तो देव, तियंच अथवा नारक होगा ।
भाग में मरे तो देव, मनुष्य, अथवा मनुष्यगति में जायेगा, मरण करता है, ६. दर्शनमोह पक कृतकृत्य वेदक देखो गो. कागा, ५६२)
५५. नाम कर्म के उस्य स्थानों के पांच नियत काल हैं।
( देखो गो० क० गा० ५८३-५८४-५८५ को० नं. १६७ )
नियत काल का वर्णन
काल मर्यादा
१, २, ३, समय
एक अन्तर्मुहृतं जानना
१-विग्रहगति या कार्माण शरीर में (केवली समुद्घात की अपेक्षा) २ --मिश्र शरीर में (शरीः पर्याप्ति पूर्ण न होने तक) ३--शरीर पर्याप्ति में (शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने पर जब तक श्वासोच्छ
वास पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती सब तक) ४--श्यासोच्छवास पर्याप्ति में (श्वासोच्छवास पर्याप्ति पूर्ण होने पर जब
तक भाषा पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक)
५–भाषा पर्याप्ति में भाषा पर्याप्ति पूर्ण होने पर अवशेष प्रायु पर्यंत
भाषा पर्याप्ति काल है)
भुज्यमान प्रायु मेंऊपर के चारों का काल कम करने से शेष काल जानना।