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८ अन्तराम कर्म
जो जीव अपने वा परके प्राणों की हिंसा करने में लीन हो और जिनेश्वर की पूजा या लत्रय की प्राप्ति रूप मोक्ष मार्ग में विघ्न डाले वह अन्तराय कर्म का उपार्जन करता है जिसके कि उदय से बह वांछित वस्तु को नहीं पा सकता।
६१. भाव का लक्षण- (जीष के प्रसाधारण गुण का लक्षण) अपने प्रतिपक्षी फर्मों के उपशमादिक के होने हुए उत्पन्न हुये ऐसे जिन प्रौपशमिकादि भावों कर जीव पहचाने जावें भाव 'गुण' ऐसी संज्ञा रूप मवंदशियों ने कहे है। पंखो गो - II. १२)
(१) भावों के नाम भेर सहित कहते है-वे मूलभाव भोपशामक, क्षायिक, मिथ, प्रोपिक. परिणामिक. इस तरह पांच ,प्रकार है और उनके उत्तर भाव क्रम' से २, ६, १८, २१, ३, इस तरह ५३ भाव जानने पाहिए । ( देखो गो० क. गा० ८१३)
(२) इन भावों की उत्पत्ति का स्वरूप कहते हैं१. पीपमिक भाव-प्रतिपक्षी कौ के सपशन होने से होता है । २. भाषिक भाव-प्रतिपक्षी कर्म के पूर्णक्षय होने से होता है।
३. मिश्र भाष भोपशम माव)-उन प्रतिपक्षी कमों का उदय भी हो परन्तु जीव का गुण भी प्रगट
रहे वहां मिश्र रूप क्षायोपथमिक भाव होता है।
४. प्रोवधिक भाव-कर्म के उदय से उत्पन्न दृपा संसारी जीव का गुण जहां हो वह मोदयिक
भाव है।
५. पारिणामिक भाव-उपशम, क्षय, क्षयोपशम पोर उदय कारणों के बिना जीव का जो
स्वाभाविक भाव है वह परिणामिक भाव है । (देखो गो० क० गा० ८१४-८१५)