Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 824
________________ ( .७६१ ) निषेक-समय समय में जो कर्म खिरे उनके समूह क एक ही एक समय में सम्भव होता है। इस कारण को निषक कहते हैं। ये पिंड पद हैं। क्योंकि एक काल में एक जीव के जिस निषेक हार-गुण-हानि दूना प्रमाण निषेक हार सम्भवते भाव समूह में से एक एक ही पाया जाये उस होता है । ( गा० ६२६) भाव को पिड पद कहते हैं । {गा. ८५६ देखो) पद- गुणहानि मायाम को पद कहते हैं । प्रत्यनिक-शास्त्र या शास्त्र के जानने वाले। प्रकृति बंध प्रकृति अर्थात स्वभाव उसका जो बंध प्रत्याख्यान - जिस कर्म के उदय से प्रत्याख्यान अर्थात यात्मा के सम्बन्ध को पाकर प्रकट होना प्रकृति अर्थात् सर्वथा त्याग का प्रावरण हो, महाव्रत नहीं हो बंध है । (गा० ८६) सके उसे प्रत्याख्यान कषाय कहते है। प्रवेश बंष - बंधने वाले कर्मों की संख्या को प्रदेशात जीव में जिनके संयोग रहने पर यह जीता बंध कहते हैं। है मौर वियोग होने पर 'यह मर गया' ऐसा व्यवहार प्रचयवन - सर्व सम्बन्धी चयो के जोड़ का ही नाम हो, उन्हें पारण कहते हैं। प्रचयधन है। इसको उत्तर धन भी कहते हैं। फालिएक समय में संक्रमण होने को फालि कहते ( गा०६०१ देखो) हैं । ( गा० ४१२ देखो) प्रचसा-इस कर्म के उ.य से यह जीष मुछ कुछ . 'बंध = कर्मों का और प्रारमा का दूध और पानी . आंखों को उघाड़ कर सोता है और सोता हुया भी थोड़ा ही थोडा जानता है। बार बार मन्द (योड़ा) शयन करता म की तरह प्रापस में एक स्वरूप हो जाना पही बंध है। हतो है । यह निद्रा श्वान के समान है । सब निद्वानों से उत्तम है। (गा २५ देखो) भाव- गुग्ण पाब्द देखो। प्रचलाप्रथला इस कर्म के उदय से मुख से लार भाव कर्म-दथ्य पिंड में फल देने की जो शक्ति बहती है और हाथ वगैरह अंग चलते हैं। किन्तु सावधान वह भाव कर्म है अथवा कार्य में कारण का व्यवहार नहीं रहता यह प्रचला है। होने से उस शक्ति से उत्पन्न हये जो प्रज्ञानादि वा प्रति भाग-.भाजक को प्रति भाग कहते हैं। क्रोधादि रूप परिणाम वेसी भावकर्म ही हैं । परघात चतुष्क- परघात १, प्रातप १, उद्योत्त १, ( गा० ६ देखो) उच्छवास १ ये ४ानना । भंग - एक जीव के एक काल में जितनी प्रकृतियों परमुखोक्य- कर्म प्रकृति अन्य रूप होकर उदय को की सत्ता पाई जाय उनके समूह का नाम स्थान है और पाना । ( मा० ४४५) उस स्थान की एक सी समान संख्या रूप प्रकृतियों में जो संख्या समान ही रहे परन्तु प्रकृतियां बदल जाय तो परिणाम योगस्थान-शारीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर भायु के अन्त तक परिणाम योगस्थान ___ उसे भंग कहते हैं। जैसे कि १४५ के स्थान में किसी कहे जाते हैं। इसको घोटमान योगस्थान भी कहते हैं। जीव के तो मनुष्यामु और देवायु सहित १४५ की ससा है तथा किसी के तिर्यंचायु और नरकायु की सत्ता सहित ( गा० २.० देखो) १.५ की सत्ता है। अतः एक यहां पर स्थान तो एक ही पिड पर एक समय में एक जीव के मध्यत्व प्रभव्यत्व रहा। क्योंकि संख्या एक है परन्तु प्रकृतियों के बदलने इन दोनों में से एक ही नियम से होता है। गति-लिंग- से भंग दो हये। इस प्रकार सम जगह स्थान और मंग कषाय लेश्या-सम्पवत्व इनमें भी अपने अपने भेदों में से समझ लेना । (गां० १५८ देखो)

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