Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 822
________________ { ७९ ध्यास्व प्रकृति इनकी स्थिलि पृथक्त्व सागर प्रमाण प्रस पछ=गुणहानि मायाम को गच्छ जानना। के शेष रहे और पल्य के असख्यातदे भाग कम एक सागर गुरग सक्रमण = जहां पर प्रति समय असंख्यात गुराग प्रमाण एकेन्द्रिय के शेष रह जावे वह 'वेदक योग्य काल' धेणी के क्रम से परमाण-प्रदेश अन्य प्रकृति रूप है और उससे भी सत्ता रूप स्थिति कम हो जाय तो बह ह. परिण में सो गुण संक्रमण है। र उपशम योग्य काल कहा जाता है। (गा. ६१५ देखो) गुरण स्थान-मोह और योग के निमित्त से होने एक क्षेत्र सूक्ष्म निगोदिया जीव की धनांगुल के पाली मात्मा के सम्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणों की असंख्यातवें भाम अवगाहना (जगह) को एक क्षेत्र सारतम्य रूप विकसित अवस्थानों को गुण स्थान जानना। एकान्तानुषधि योग स्थान एकान्त अर्थात् नियम गुण - अपने प्रतिपक्षी फर्मों के उपदामादिक के कर अपने समयों में समय समय प्रति असंख्यात गुणी होने पर उत्पन्न हये ऐसे जिन प्रोपशमिकादि. भावों कर अविभाग प्रतिच्तुदों की वृद्धि जिसमें हो वह एकान्तानबुद्धि जीव पहचाने जावे वे भाव 'गुण कहलाते हैं। . स्थान है 1 : गा० २२२ देखो। (गा. १२ देखो। प्रोध: गुण स्थान को प्रोच कहते हैं। गुण हानि मायाम =एक एक गुण हानि में जितने मोराल-मोदारिक पारीर को ओराल कहते हैं। समय या स्थान होंगे उन्हीं को गुणहानि प्रायाम प्रौदारितिक प्रौदारिफ शरीर १, औदारिक गुण्य-प्रत्येक गुणस्थान में प्रौदयिक भावों की जितनी होंगे उनको गुण्य कहते हैं । अंतःकोडामोडी-एक कोडी के ऊपर और कोष्ठाफोडी के भीतर । अंगोपांग १ये २ जानना । गोत्रकर्म-कूल की परिपाटी के क्रम से पला पाया कृतकृत्य वेदक =जो वेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य गति में जो जीव का माचरण उसकी गोत्र संज्ञा है अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व को प्रारम्भ करता है वह क्षायिक उसे गोत्र कहते हैं । (गा० १३ देखो) सम्यत्रत्व मनुष्य गति में ही पूर्ण होगा अथवा अगले गति ___घाति कर्म - जीच के अनुजीवी गुणों को धातते में भी होगा। (नष्ट करते हैं ऐसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, फुल=भिन्न भिन्न शरीरों की उत्पत्ति के कारण मन्तराय में ४ धाति कर्म हैं। गा०६) भूत नोकर्म वर्गणा के भेदों को कुल कहते हैं । घरमान योग स्थान - अपनी अपनी शरीर पर्याप्ति कवली घात-अपवर्तन घात शब्द देखो। के पूर्ण होने के समय से लेकर अपनी अपनी भायु के कोशकोडो- एक कोडि को एक कोडि से गूणाकार अन्त समय तक सम्पूर्ण समयों में परिणाम योगस्थान करने से जो संख्या आवेगो उसी को जानना । उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी संभवते हैं और इसी तरह लम पर्याप्तक के भी अपनी स्थिति के सब कांडपा- समय समुदाय में संक्रमण होना । भेदों में दोनों परिणाम योगस्थान सभव हैं। ये घटते ( गा० ४१२ देखो) भी हैं और बढ़ते भी है और जैसे के तसे भी रहते हैं

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