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आयु-नरकायु
जो जीव मिथ्यादृष्टि हो, बहुत प्रारम्भी हो, शील रहित भाव हो, तीन लोभी हो, रौद्र परिणामी हो, पाप कार्य करने की बुद्धि सहित हो, वह जीय नरकायु को बांधता है।
(1) तियंचायु
जीपिक उत्श करने वाला हो, भले मार्ग का नाशक हो, गुढ़ प्रर्थात दूसरे कोन मालूम होवे ऐसा जिनके हृदय का परिण म हो, मायाचारी हो, मूर्खता सहित जिसका स्वभाव हो, मिथ्यामापा-निदान सल्यों कर सहित हो, वह जीव तिर्यल प्रायु को बांधता
(२) मनुष्यायु
जो जीव स्वभाव से ही मंदक कषाय वाला हो, दान में प्रीतियुक्त हो, शील संयम कर रहित हो, मध्यम गुणों कर सहित हो अर्थात जिनमें न तो उत्कृष्ट गुण. हो न दोष हों, वह जीव मनुष्य आयु को बांचता है।
(४) देवायु
जो जीव सम्यग्दृष्टि है वह केवल सम्यक्त्व से वासाक्षात् अणुव्रत, महाव्रतों से देवायु को बांधता है तथा जो मिथ्या दृष्टि है वह बालतप पर्याव अज्ञान रूप वाले तपश्चरण से वा प्रकामनिजरा से (संतोषपूर्वक पीड़ा सहन करना) देवायु को बांधता है।
६ नामकर्म
( शुभाशुभ)
जो जीव मन-वचन-काय से कुटिल हो प्रर्था सरल न हो, कपट करने वाला हो, अपनी प्रशंसा चाहने वाला नथा करने वाला हो अथवा ऋद्धि गारव प्रादि से युक्त हो, वह नरक प्रादि अशुभ नामकर्म को बांधता है और इससे विपरीत स्वभाव वाला हो अर्थात सरलयोग वाला निष्कपट प्रशंसा न चाहने वाला हो वह शुभ नामकर्म का बन्ध करता है।
७ गोत्रकर्म
(उच्च-नीच)
जो जीव प्रतादि पांच परमेष्टियों में भक्तिवंत हो, वीतराग कथित शास्त्र में प्रीति रखता हो, पढ़ना विचार करना इत्यादि गुणों का दर्शक हो, वह जीव उच्चगोत्र को बन्ध करता है और इनमे विपरीत चलने वाला नीचगोत्र को बांधता है।