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पहले बार में प्रायु अन्धी थी उस बध्यामान. प्रायु की दूसरा प्रबंध रूप भंग जानना। यहां उदय और सत्व स्थिति की वृद्धि वा. हानि अथवा अवस्थिति: (काम) केवल एक सु-मान प्रामु का ही रहता है। इस रह सकती है और गायु के बंध करने पर जीवों के प्रकार तीन भंग (बंघ उदय ., सत्व १) परिणामों के निमित्त से उदय प्राप्त (मुज्यमान) अस्यु जानना । का 'प्रवर्तन पात' (कली पात, घट जनाना ) भी होता है।
उपरत बंत्र-प्रागा। आयु बंध जहाँ भूतकाल में
इया हो और वर्नमा- काल में न हो रहा हो वहां भावार्थ. ग्राट पकर्षणों में सभी के अन्दर प्राय
... उपरतवन्ध तीसरा भंग होता है। यहां अपरतबन्ध , का बन्च हो ही। ऐसा नियम नहीं है। जहां पर अयु बन्ध के निमित्त मिलते हैं वहीं बन्ध होता है तथा जिस उदय भूज्यमान पायुः १ सत्व बध्यमान ग्रायु १ और अपकर्षण में जिस प्रायु का बन्ध हो जाता है उसके भुज्यमान प्रायु १ ये २ रहते हैं। इस प्रकार अनन्तर उसी भायु का बन्ध होता है, परन्तु परिणामों तीन भंग (उपरत बंध ०, उदय १, सत्व २) जानना । के अनुसार उसकी (बध्यमान घायु की स्थिति कम जादे (देखो गो० क० गा० ६.४) या अवस्थित हो सकती है तथा उसक, उदय प्राने पर अर्थात् भुज्यमान अवस्था में उसका कदली गत भी हो ६०. पात्रब के मूल मेद चार है मिथ्यात्व, अविरति, सकता है। (देखो गोल कर गा०६४३)
कषाय, योग, इन चार के उत्तर भेद ऋम से ५, १२, सूचना-जसे १६वें स्वर्ग में किसी को २२ सागर २५ और १५ ये सब मिलकर ५ : होते हैं। स्थिति का प्रायुबंध हग्रा हो और उसके दूसरे अपकर्षण
प्रास्त्रष-निसके द्वारा कामणि वर्गणारूप पुदगल एकंध काल में परिणामों की विशुद्धि कम होने से १. स्वर्ग की १८ सागर से कुछ अधिक स्थिति रह सकती है। कमपन को प्राप्त हो उसका नाम प्रास्रव है। वह
मात्मा के मिथ्यात्व दि परिणाम रूप हैं, उनमें से५. प्रायु कर्म के भंग का स्वरूप-इस प्रकार बंध । होने पर घबना बंध नहीं होने पर घ उपरत बंध अवस्था (१) मिव्यास-एकांत, विनय, संशय, विपरीत, ने एक जीत्र के एक पर्याय में एक एक के प्रति तीन तीन
प्रज्ञान ऐसे ५ प्रकार का है। भंग नियम से होते हैं।
(२) प्रविरति-पांच इन्द्रिय तथा दृष्ट्वामन इनको बंध - वर्तमान कान में परभय की प्रायुबंध हो रहा ।
वशीभूत नहीं करने से छ: भेद रूप और पृथ्वीकायादि हो वहां पहला बंध रूप अंग जानना । वहां बंध आगामी
पांच स्थावर काय तथा एक असकाय इनकी दया न करने
न आयु का १, उदय भुज्यमान यायु का १, और
से छः भेद रूप इस प्रकार १२ प्रकार का है। सत्त्व 'सुज्यमान आयु का १, व बध्यमान प्रायू का १ इस प्रकार तीन भंग ( बंध १, उदय १, सत्त्व २) (:)कषाय-अनन्तानुवन्धी कोष-मान-माया-लोभ ४ होते हैं।
अप्रत्यास्य न कपाय ४, प्रत्याख्यान कषाय ४, मज्वलन
कषाय ४ये १६ कषाय तथा हास्य-रति, प्रगति-शोक, प्रर्वषग मी आयु का बंध जहाँ भूतकाल में भी भय-जुगुप्मा, नमक, स्त्री, पुरुष वेद ये नव नोकषांप बंध दृया हो और वर्तमान काल में न हो रहा हो वहां इस तरह पल मिलकर २५ प्रकार का है।