Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 803
________________ ( ७७० ) ५७. उद्दलन! स्थानों में जो विशेषता है उसको तो वह 'उपशम योग्य काल' कहा जाता है । (देखो गो० कहते हैं क० गा० ६१५) मिथ्यात्व गुगा स्थान में जिन प्रकृत्तियों के बंध की प्रथवा जदय को वासना भी नहीं गेसी सम्यक्त्व प्रादि ४) तेजस्कायिक और वायु कायिक जीवों को गुग मे उत्पन्न हुई सभ्यवस्व मोहनीय (सम्यक्त्व प्रकृति) १, उलन प्रकृतियां--- मित्र मोहनीय (सम्याइ निध्यात्त्र; १, प्राहारकदिक २, नच.र प्रकुतियों की तथा शेष ८ जन प्रकृतियों की मनुष्यद्विक २ और उच्च गोत्र १, इन तीन उद लगा यह जाव यही मिथ्याल गुणा स्थान में करता प्रकृतियों को उलना तेजस्कायिक और वायुकायिक इन है, (देखो गो० के० गा० ४१३ से ४१५ और ६१२) जीवों में होती है और उस उद्वेलना के काल का प्रसारण (१)ो उदलन प्रकृति १३ हैं उन प्रकृतियों के जघन्य अथवा उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण का क्रम है। है, अर्थात् इतने काल में उन सीन प्रकृतियों के निषेकांची आहारराविक २ प्रशस्त प्रकृति है इसलिये चारों गति उदलना हो जायेगी, पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण के मिथ्याटि जीव पहले इन दोनों की उद्वेलना करते जिसकी स्थिति है, उस सत्ता रूप स्थिति की उद्वेलना है। पीछे सम्यक्त्व प्रकृति की, उसके बाद सम्यग्मिथ्यात्व एक अंतमहतं काल में करता है. तो संख्यात सागर प्रकृति की उपना करते हैं, उसके बाद शेप देवाद्विक २, प्रमाण मनुष्यतिकादिको सत्ता रूप स्थिति की तुलना नरकद्विकर, पंक्तियिकद्विक २, उच्चगोग १, मनुष्य द्विक २, इन प्रकृतियों की उद्वेलना एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय कितने काल में करेगा? इस राशिक विधि से पस्य के योर सकतेन्द्रिय जीव करते हैं। (देखो गो० क. गा० प्रसंख्यातवें भाग प्रमाग काल में ही कर सकता है, ऐसा ६१३) सिद्ध होता है । (देस्रो गो० क० गा० ६१६-६१७) (२) उस उद्वेलना के अवसर का काल कहते हैं ५८. सम्यक सादिक को विराधना (छोड़ देना) वेदकसम्यक्त्व योग्य काल में प्राहारकद्विक २ की कितनी बार होती है यह कहते हैंउह लना करता है, उपशम काल में सम्यक्त्व प्रकृति चा सम्बग्मिध्यान्य प्रकृति को उद्धेलना करता है मौर (१) प्रथमोपशमसम्यक्त्व, वैदक (क्षयोपशमिक) एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीत्र वैक्रियिक पटक को सम्यक्त्व, देश संयम और अनंतानुबंधी कधाय के विसंयो(देवद्रिक २, नरकद्विक २, वैक्रियकाहिक २। उलना जन को विधि-इन चारों अवस्था को यह एक जीव करता है। (देखो मो० कगार ६१४) उत्कृष्टपने यर्थात् अधिक से अधिक पल्य के असंख्यातवें (३) इन दोनों कालों का लक्षण कहते हैं भाग समथों का जितना प्रमाण है उतनी बार छोड़-छोड़ सम्यक्त्व प्रकृति मौर सम्यरिमथ्यात्व प्रकृति इन दो के पुनः पुनः ग्रहण कर सकता है, पीछे नियम से सिद्ध प्रकृतियों की सत्ता रूप स्थिति पस के पृथक्त्व सागर पद को ही पाता है। (देखो मो० क० मा० ६१३) प्रमाण शेष रहे और एकेन्द्रिय के गल्य प्रसंख्याल 'माग का एक सागर प्रताप शंष रजावे बह 'वेदक योग्य काल' (२) उपशमणी पर एक जीव अधिक से अधिक है और उसगे भी जिती सत्ता हर स्थिति कम हो जय चार बार ही चढ़ सकता है, पीछे कर्मा के अंशों को पक्ष

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