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कुलकर देवलोक ही जाय, मदन मदन हरि ऊरद याय ॥४४॥
चक्री प्रध-चक्री वा हली, स्वर्गलोक ते आवे बली। इनकी प्रागति एकही कही, अब सुनिये जागति जू सही ॥३६॥ च को की गति हीन बखान, स्वर्ग नरक अरु मोक्ष सुधान । तातो सुरक्षिय नाय, मरे राज में नरक लहाय ।।३७।। पाखिर पावे पद निर्वाण, पदवीधर में पुरुष प्रधान । बलभद्दर की दो जागती, सुरमें जाय के है शिवपती ॥३॥ तप धारे ये निश्चय भाय, मुक्तिपात्र सूत्र में गाय । अर्थचक्रि को एक हि भेद, जाय नरक में लहे जु खेद ॥३॥ राज माहि यह निश्चय मरे, तद्भव मुक्ति पंछ नहि धरे। पाखिर पावें पद निर्वाण, पदवीधारक बड़े सुजान ||४०।। इनकी प्रागति सुरगति जान, गति नरकन की कही बखान । आखिर पावें पद शिवलोक, पुरुष शलाका शिव के थोक ||४|| ये पद पाय सु जगके जीक. अल्पकालमें व जग पीव । और हू पद कोई नहिं गहे. कुलकर नारद हू नहिं लहे ।।४।। रुद्र भये न मदन हूँ भये, जिनवर तात मात नहिं थये। ये पद पाय रुल नहिं जीव, योरे दिनमें है शिव पीय ॥४३॥ इनकी प्रागति शृत तें जान, जागति रीती कहूं जु बखान ,
नारद रुद्र अधोगति जाय, कलह कलह महादुखदाप । जन्मान्तर पावे निर्वागा, बड़े पुरुष ये सूत्र प्रमाण ॥४॥ तीर्थकर के पिता प्रसिद्ध, स्वर्ग जायके होव सिद्ध माता स्वर्गलोक ही बाग, प्राखिर शिवसृख वेग लहाय ॥४६॥ ये सब रीति मनुष की कही, अब सुनि तिर्वग गति की सही। पचेन्द्रिय पशु मरण कराय, चौडीसों दण्डक में जाय ।। ७॥ चौबीसों दण्डकतें मरं, पशु होय तो नाहन परे । गति-भागति बरी चोवीस, पंचेन्द्रिय पशु की जगदीश ॥४८|| ता परमेश्वर को पथ गही, चौबीसों दण्डक को दहो। विकलत्रय की दस ही गति, दस भागति भाषी जिनपति ॥४६।। थावर पंच विकल तीन, नर तिर्यंच पंचेन्ट्री लीन । इन ही दस में उपजे पाय, इनही निकलत्रय याय ।।५०॥ नारक बिन दण्डक है जोय, पृथ्वी पानी वरवर होय । तेज वायु भरि नवमें जाय, मनुष होय नहिं सूत्र कहाय ।।५१॥ थावर पंच विकलत्रय होर, ये भवगति भाषी दमोर । दसते आय तेज अरु बाय, होय सही गावें जिनराय ॥५२॥
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