Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 784
________________ ३५, उपशम श्रेणीवाले के चारित्र मोहनीय की शेष रूप परिण में उसको भागहार कहते हैं। उसके उलन, २८-७-२१ प्रकृतियों के उपशम करने का विधान विध्यात, प्रधःप्रवृत्तम गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमरम के बताते हैं .. पाम के विधान में भी क्षपणा विधान की भेद से पांच प्रकार हैं। (देखोगो कर गा०४०१)। तरह क्रम जानना । परन्तु विशेष बात यह ' कि, ८वीं {१) संक्रमण का स्वरूप कहते हैं—अन्य प्रकृति गुगास्थान से ११वा गुणस्थान सक उपशम-नगी च ने परिणमन को संक्रमगा कहते हैं । सो जिस प्रकृति का बंध वाले जीन को नरकायु और लियंचायु इन कति होता है उसी प्रकति का संक्रमण भी होता है। यह कम होकर १४६ प्रकृतियों का सत्ल रहता है; और जो सामान्य विधान है कि जिसका बन्ध नहीं होता उसका क्षायिक सम्पदृष्टि जीव उपशम-गी चढ़ता है उसे संक्रमण भी नहीं होता । इस कथन का ज्ञापनसिद्ध प्रयो८ से ११३ गुणस्थान तक १३८ प्रकृतियों का सरख रहता यह है कि दर्शनमोहनीय के बिना शेष सब प्रकृतिमा बन्न है । इसी तरह प्रायुबंध जिसको नहीं हुआ है ऐसा क्षायिक होने पर संक्रमण करती है, ऐसा नियम जानना । असाता सम्यग्दृष्टि को ४ये से ज्वें गुरणस्थान तक १८ प्रकृतियों का बन्ध ६ गुणस्थान तक होता है । इसलिये साता का का सत्व रहता है। नपुसकवेद, स्त्रीवेद, नोकषाय., सक्रमण ६वें गुरगस्थान तक असातारूप होयेगा। इसी पुरुषवेद इनका उपशम कम से होता है और क्रोध, मान, तरह साताका बन्ध १३२ गुणस्थान तक होता है इसलिये माया, लोभ, इनका उपशम निम्न प्रकार वे गुरास्थान असाता का संक्रमण १३वें गुणस्थान तक होता है । परन्तु में पुरुषवेद के उदशम होने के बाद नया बन्धा हुमा दर्शनमोहनीय के जहाँ बन्ध होना है तहां यह नियम नहीं पूरुषवेद कर्म का प्रपत्पस्यान क्रोधासह उपशम करता है। है। तथा मूलप्रकतियों का संक्रमण पर्थात् अन्य का अन्य नन्तर संज्वलन क्रोधका उपशम करता है। इसके बाद रूप परस्पर में परिणमन नहीं होता । ज्ञानावरण की नया बन्धा हुग्रा संज्वलन कोषका अप्रत्याख्यान और प्रकृति कभी दर्शनावरणरूप नहीं होती इससे सारोश यह प्रत्याख्यान मान कषायसह उपशम करता है । मन्तर निकला कि उत्तरप्रकतियों में ही संक्रमण होता है । परन्तु संज्यसन मान का उपशम करता है इसके बाद नया बंधा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर में संक्रमगा हमा संज्वलन मान का अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान नहीं होता तथा चारों मायनों कानी परस्पर में मायाकषायसह उपवाम करता है । नन्तर संज्वलन माया संक्रमण नहीं होता । (देखो गो० के० गा० ४१०) । का उपशम करता है । इसके बात नया बन्धा हुअा माया ___सम्यवत्व मोहनीय (सम्यक्त्व प्रकृति) का मंक्रमण का अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान लोभसह उपशम करता है । नन्तर बादर संज्वलन लोभ का उपशम करता है। ४थे गुणस्थान से वे गुणस्थान तक नहीं करती। कर्मबन्ध होने के बाद एक आवी तक जसमा उपशम, मिथ्यात्वमोहनीय (मिथ्यात्वप्रकृति) का संक्रमण मिथ्यात्व क्षय, उदय वगैरह नहीं होता , (देखो गो० क. गा० गुरणस्थान में नहीं करती। मित्र मोहनीय (सम्यमिध्यात्व) का संकमक ३२ मिश्रण में नहीं करती । सासादन और ३४३)। मिश्नगुगास्थान में निवम से दर्शनमोहनीय के त्रिक मा ३६. संक्रमण के पांच प्रकार हैं संक्रमण नहीं होता। सामान्य से दर्शनमोहनीय का पांच प्रकार के संक्रमण में पाँच प्रकार के भागहार होते संक्रमण से ७ इन चारों गणस्थानों में होता है। देखो हैं । संसारी जीवों के अपने जिन परिणामों के निमित्त से गो० क० मा ४११) । शुभकर्म और अशुभकर्म संक्रमण करे अर्थात अन्य प्रकृति- कोई -म्याठि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त

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